Tuesday, May 27, 2008

दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा

दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा
उन्हें पहली बार पांच तारा होटल इंटरकांटिनेंटल में देखा था। कुछ सकुचाई हुई सी और ढेर सारे लोगों की तवज्जो मिलने से कुछ सहमी हुई सी। वहां मौजूद तमाम दूसरे लोगों से अलग। अपने पहनावे में। अपने व्यवहार में। और अपनी भाषा-बोली में भी। वे राजकुमारियां थीं अलवर की। जी हां, सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने उन्हें यहीं नाम दिया है – प्रिंसेस ऑफ अलवर। इनके परिवार के पास राज के नाम पर अलवर की अलग-अलग गलियां थीं। अलग-अलग मुहल्ले थे। जहां इनके परिजन सिर पर मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथा को एक सामाजिक मजबूरी के तौर पर जिंदा रखे हुए थे। इन्हें भी उसी पेशे में उतरना था। अपने घर पर नहीं तो, ससुराल में। ज्यादातर राजकुमारियों की यही कहानी है। इंसानी गैर बराबरी को सबसे दुखद ढंग से प्रतीकित करने वाले इस पेशे से डॉ. पाठक ने इन्हें बाहर निकाला।
इन्हीं में एक थी- हेमलता चौमड़। हमारी पहली मुलाकात बेहद औपचारिक पांच तारा माहौल में हुई थी। लेकिन जब सुलभ कांप्लेक्स में हम लोग दूसरी बार मिले तो एक बिल्कुल अलग हेमलता हमारे सामने थे। अपनी मौजूदा स्थिति से संतुष्ट और खुश। आत्मविश्वास से भरी, लेकिन अपने पुराने दिनों को याद कर कुछ लज्जित होती हुई, दुख से भरती हुई। अपने बेटे के अलग हो जाने के नितांत निजी दुख को शेयर करती हुई और अपनी बेटियों के कुछ बड़ा करने की सोच कर गर्व से भर जाती हुई। हेमलता की कहानी किसी भी अछूत परिवार की कहानी की तरह ही है। लेकिन कहानी में कई जगह ऐसे ट्विस्ट हैं, जो इसे विशिष्ठता प्रदान करते हैं। अगर इसके लिए कालिगुला नाटक का संवाद उधार लें तो कह सकते हैं – दुनिया के सारे सुखी परिवार एक जैसे होते हैं, दुखी परिवार अपने दुखों के कारण विशिष्ठ हो जाते हैं। ऐसी ही कुछ विशिष्ठता हेमलता के परिवार के साथ जुड़ी हुई है।
पिता सरकारी अस्पताल में नौकर थे और माई घरों में दाई का काम करती थी। चार बहन और दो भाइयों के इस भरे-पूरे परिवार में कभी भी किसी को सिर पर मैला ढोने की जरूरत नहीं पड़ी। बड़े भाई को नगरपालिका में नौकरी मिल गई थी और छोटा भाई मजदूरी करने लगा था। घर में कमाने वाले चार लोग हों तो लड़कियों को काम करने की जरूरत नहीं थी। पिता चाहते थे कि लड़कियां कुछ पढ़ लें। क्यों पढ़ लें, इसका भी उनका अपना तर्क था। पिछले साल यानी 2007 के आठवें महीने की तीन तारीख को गुजर गए अपने पिता को याद करती हुई हेमलता बताती है कि उसके पिता कहते थे – पढ़-लिख लोगी तो ससुराल जाकर चिट्ठी तो लिख सकोगी, लेकिन हमारा बचपना था कि हम पढ़े ही नहीं। जाहिर है प्यार करने वाले पिता थे, मां थी और कमाने वाले भाई थे। लेकिन किस्मत को शायद हेमलता और उसकी बहनों का सौभाग्य मंजूर था। समझदार होने की उम्र से काफी पहले हेमलता की शादी हो गई। अपनी बड़ी बहन की शादी के मंडप में ही। अपनी बड़ी बहन के पति के छोटे भाई से। शादी का साल हेमलता को याद नहीं है। लेकिन इतना याद है कि वह छठे महीने की 15 तारीख थी। और हां, उस समय हेमलता की अपनी उम्र सात साल थी। शादी हुई अलवर के ही घसीटा चौमड़ के बेटे जगदीश चौमड़ से। लेकिन यहां कहानी में ट्विस्ट है।
घसीटा चौमड़ और बरपाई चौमड़ के छह बेटे और दो बेटियां थीं। लेकिन घसीटा की बहन मूला देवी के कोई औलाद नहीं थी। सो मूला देवी ने अपने भाई से उसके एक बेटे जगदीश चौमड़ को गोद ले लिया था। उसी जगदीश चौमड़ से हेमलता की शादी हुई। एक समुदाय और एक जैसी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से होने के बावजूद हेमलता को ससुराल का माहौल अपने घर के माहौल से अलग मिला। वहां लोग सिर पर मैला ढोने का काम करते थे। पति जगदीश ने भी अरसे तक यह काम किया था। हेमलता ने आने के बाद कह सुन कर पति को इस पेशे से अलग कराया। लेकिन दुर्भाग्य ऐसा कि जगदीश को कोई स्थायी काम नहीं मिला। वह रिक्शा चलाता रहा, मजदूरी करता रहा और अंत में घर की मजबूरियों के कारण हेमलता को सिर पर मैला ढोना पड़ा। क्यों करना पड़ा इसकी भी एक अलग कहानी है। मूला देवी और उनके पति यानी हेमलता के वो सास-ससुर, जिन्होंने उसके पति को गोद लिया था, वो दार्जिलिंग में रहते थे। हेमलता भी अपने पति के साथ दार्जिलिंग चली गई। लेकिन परी कथा की तरह हेमलता की जिंदगी में आया यह क्षण बहुत जल्दी हवा में उड़ गया। सास खाना नहीं देती थी। ससुर शराब पीकर मार-पीट करता था। बात-बात कर हेमलता को घर से निकाल दिया जाता था। वहीं हेमलता को पहला बच्चा हुआ, जिसका नाम उसने जसवंत रखा। लेकिन सास-ससुर की प्रताड़ना बंद नहीं हुई। और आखिरकार 15 दिन के जसवंत को लेकर हेमलता और जगदीश अलवर लौट आए। हेमलता को लगता है कि तब उसकी उम्र 14 साल थी और वह अस्सी के दशक के आखिरी या नब्बे के दशक के शुरुआती दिन थे। यानी इस लिहाज से बड़े बेटे की उम्र कोई 18 साल है और खुद हेमलता की उम्र करीब 32 साल।
अलवर के हजूरी गेट, नई कॉलोनी, मोरा के पास पांच-छह घर हेमलता के हिस्से आए थे। हर घर से 50-60 रुपए का महीना मिलता था। ननद के साथ हेमलता इस काम पर जाती थी। उसकी तबियत बिगड़ जाती थी। अक्सर वह जजमान के घर में उल्टियां कर देती थी, जिससे वे नाराज भी होते थे। लेकिन मजबूरी थी। इस मजबूरी में कोई दस साल तक हेमलता ने यह काम किया। इस बीच हेमलता को चार बच्चे और हुए – दो लड़कियां और दो लड़के। इन बच्चों की भी अलग कहानी है। सबसे बड़े बेटे जसवंत ने एक तलाकशुदा महिला के साथ कोर्ट में जाकर शादी कर ली है और अपने परिवार से अलग रहता है। इस शादी के लिए उसने अपनी दादी यानी मूला देवी से एक बड़ी रकम भी हथिया ली थी। इतना ही नहीं जसवंत अपने दूसरे भाई-बहनों से झगड़ा भी करता है। दूसरा बेटा मनु मजदूरी करता है और कमाई का पैसा मां के हाथ में रखता है। तीसरा बेटा मुर्गा फार्म में काम करता है और दो बेटियां स्कूल जाती हैं। जाहिर है पिता के लाख कहने के बावजूद जो काम हेमलता ने नहीं किया, वह दोनों बेटियां कर रही हैं।
जिस समय दुनिया नई सहस्राब्दी शुरू होने का जश्न मना रही थी, उस समय भी हेमलता और उसके जैसी सैकड़ों हजारों महिलाएं सिर पर मैला ढोने का काम कर रही थीं लेकिन नई सहस्राब्दी शुरू होने के दूसरे साल यानी 2002 में डॉ. बिंदेश्वर पाठक अलवर गए। फिर आया हेमलता के जीवन का सबसे बड़ा बदलाव। उसके सामने उस गलाजत भरी जिंदगी से निकल कर संभ्रांत लोगों की तरह जीने का प्रस्ताव था। उसे लगा, जैसे वह सपना देख रही हो। लेकिन बहुत जल्दी वह सपना साकार हो गया। हेमलता को सुलभ के सेंटर नई दिशा में नौकरी मिल गई, जहां वह पापड़, अचार बनाने का काम करती है और सिलाई-कढ़ाई भी करती है। हेमलता के लिए यह सिर्फ एक नौकरी नहीं है, जहां से कमा कर वह अपने परिवार का खर्च चलाती है। बल्कि यह सामाजिक स्वीकृति का खुला रास्ता है। अब उसे ऊंचे तबके के लोगों के साथ उठने-बैठने की मंजूरी मिल गई है। हेमलता का मोहल्ला जहां से शुरू होता है, उसके मुहाने पर ही ब्राह्मणों के घर हैं। अब उन घरों में रहने वाले हेमलता के साथ बात करते हैं, उसका हाल-चाल पूछते हैं और हां, उसके हाथ के बनाए पापड़-अचार भी खाते हैं। जब से उन्हें यह पता चला है कि हेमलता न्यूयार्क जाएगी औऱ दुनिया की सबसे बड़ी पंचायत संयुक्त राष्ट्र संघ में उसके ऊपर लिखी गई किताब रिलीज होगी, तो उससे घृणा करने वालों को भी उससे रश्क होने लगा है। यह एक व्यक्ति के जीवन का एक चक्र पूरा होने की तरह है।
हेमलता अब भी अलवर की उन गलियों में रहती हैं, जहां उसने अपने जीवन के सबसे खूबसूरत दिन बेहद नारकीय ढंग से बिताई है। वहां उसका अपना पक्का, लेकिन टूटा-फूटा घर है। अब वह वहां की राजकुमारी है। वह इज्जत भरी आत्मनिर्भर जिंदगी बिता रही है। उसका पति उसे बहुत प्यार करता है। उसके पास मोबाइल फोन है, दिल्ली प्रवास के दौरान जिस पर फोन करके पति लगातार हाल-चाल पूछ रहा था। चार बच्चे साथ रहते हैं। माई दो-तीन महीने में घर आ जाती है। अब अचानक उसे लगने लगा है कि उसकी किस्मत अच्छी है। अब उसे अपने बच्चों की चिंता है और यह चिंता बात-बात में झलकती है। वह कहती रहती है – पता नहीं उनकी किस्मत में क्या लिखा है। वह चाहती है कि बेटों की शादी हो तो घर में पोतियां आएं, क्योंकि लड़कियां उसे अच्छी लगती हैं। दूसरी चाहत है कि बेटियां पढ़-लिख जाएं और उनकी अच्छे घरों में शादी हो जाए। इंशाअल्लाह, हेमलता की यह ख्वाहिश भी पूरी हो।

Wednesday, November 28, 2007

मीडिया एनजीओ या आंदोलन का नाम नहीं है

मीडिया एनजीओ या आंदोलन का नाम नहीं है
अजीत अंजुम
मीडिया की बदलती भूमिका को लेकर अरसे से बहस चल रही है। इसका दायरा बढ़ रहा है। इसके नए स्वरूप उभर रहे हैं। परचे के रूप में शुरू हुई पत्रकारिता साइबर युग में पहुंच गई है। एक करोड़ से अधिक पाठक वाले अखबारों की संख्या कम से कम चार तो हो ही गई है। खबरिया चैनलों के दर्शकों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। विस्तार की इस प्रक्रिया के समानांतर बदलाव की भी एक प्रक्रिया चल रही है। यह बदलाव सरोकारों का है। हालांकि एकाध अखबार अब भी अपनी टैग लाइन – अखबार नहीं आंदोलन- लिखते हैं। पर चाहे अखबार हों या न्यूज चैनल, हकीकत यह है कि मीडिया आंदोलन नहीं है। इसे स्वीकार करने वालों की संख्या कम है, पर इससे हकीकत नहीं बदलती। यमुना पुश्ते पर विस्थापन बनाम दिल्ली में सीलिंग की मीडिया कवरेज पर काम करते हुए ज्यादा करीब से इस सचाई से रूबरू हुआ। अध्ययन के नतीजे न सिर्फ इस बात की पुष्टि करते हैं कि कवरेज में उतना ही अंतर रहा, जितना जमीन और आसमान के बीच है, बल्कि इसकी भी पुष्टि करते हैं कि सीलिंग से नाराजगी का भाव खबर देने वाले चैनलों और अखबारों के पत्रकारों के मन में भी था और इसलिए इससे प्रभावितों के प्रति एक किस्म की सहानुभूति स्पष्ट रूप से दिखती है। ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिरकार कम से कम दो चैनल तो सीलिंग की कार्रवाई का शिकार हुए ही। लेकिन इसे खुल कर कोई स्वीकार नहीं करता। पर इसमें भी किसका दोष है, क्या हिप्पोक्रेसी हमारे सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा नहीं है? बहरहाल इस विषय पर अपने अध्ययन से हासिल कुछ तथ्यों और अपने परसेप्शन के साथ मैं हिप्पोक्रेट्स व मीडियोकॉर, छद्म बौद्धिक पत्रकारों की जमात से कुछ अलग बेलाग बात करने वाले और इलेक्ट्रानिक मीडिया के मौजूदा स्वरूप की खुली वकालत करने वाले वरिष्ठ पत्रकार और बीएजी फिल्म्स के प्रस्तावित न्यूज चैनल न्यूज 24 के मैनेजिंग एडीटर अजीत अंजुम से मिला। उन्होंने विषय की कुछ प्रस्तावनाओं से सहमति जताई, मीडिया पर अपने दशर्क-पाठकों की रूचि के दबाव, बाजार की भूमिका, बड़ी पूंजी की मजबूरियों और खबर के प्रति वस्तुनिष्ठ नजरिए को एक पर्सपेक्टिव के साथ रखा। उन्होंने यह माना कि मीडिया की सामाजिक जिम्मेदारी बनती है, लेकिन स्पष्ट शब्दों में इस सोच को खारिज कर दिया कि मीडिया कोई एनजीओ या आंदोलन है। उन्होंने बहुत स्पष्ट कहा कि चाहे पुश्ते का विस्थापन हो या सीलिंग, मीडिया कोई पार्टी नहीं है और इन घटनाओं को छापने या दिखाने का फैसला इनके न्यूज वैल्यू से तय होगा, वर्ग या वर्ण के भावनात्मक रूझान से नहीं। उनके कहे का लब्बो-लुआब यह भी रहा कि मीडिया बिजनेस है और खबर प्रोडक्ट है, जिसके केंद्र में इसके पाठक या दर्शक हैं। उनसे हुई बातचीत का ब्योरा यहां प्रस्तुत है-
यमुना पुश्ते से झुग्गियों के उजाड़े जाने और दिल्ली की सीलिंग दोनों की कवरेज में जमीन-आसमान का अंतर रहा। इसकी क्या वजह है?
मेरा मानना है कि चाहे ये दो घटनाएं हों या कोई और घटना हो कवरेज को लेकर तुलनात्मक समीक्षा नहीं होनी चाहिए। मेरा सवाल है कि आखिर कौन इंच, टेप या मीटर लेकर यह नाप रहा है कि किस घटना को कितनी कवरेज मिली और ऐसा क्यों कर रहा है? दो अलग-अलग प्रकृति और पृष्ठभूमि की घटनाओं की कवरेज अलग-अलग होगी ही, इसे समझने के लिए अतिरिक्त बुद्धि की जरूरत नहीं है। यमुना पुश्ते का विस्थापन और दिल्ली की सीलिंग दो अलग-अलग किस्म की समस्याएं हैं। अगर कहीं से झुग्गी बस्ती हटाई जा रही है और हटाए जा रहे लोगों के लिए पुनर्वास की व्यवस्था नहीं हो रही है तो यह एक खबर है। इसी तरह से दिल्ली की सीलिंग भी एक खबर है। इन दोनों घटनाओं को कितना समय दिया जाए, यह इनके न्यूज वैल्यू से तय होगा।
तो क्या दिल्ली की सीलिंग की न्यूज वैल्यू ज्यादा थी?
निश्चित रूप से। दिल्ली में सीलिंग बिल्कुल नई बात थी। झुग्गियों का उजड़ना पिछले 30-40 सालों से चल रहा है, विस्थापन भी दशकों से चल रही प्रक्रिया है। विस्थापितों के प्रति पूरी सहानुभूति के बावजूद यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि विस्थापन ऐसी खबर है, जिसके लिए मौजूदा समय में दर्शक या पाठक खोजना मुश्किल है। इसके लिए हम या मीडिया के दूसरे लोग कितने जिम्मेदार हैं और हमारा समाज कितना जिम्मेदार है, यह अलग बहस का विषय है। इसके बरक्स सीलिंग एक नई घटना थी। ऐसे लोगों के घरों की सीलिंग और तोड़-फोड़ हो रही थी, जिनके लिए अवैध निर्माण अधिकार की बात मानी जाती थी। देखते-देखते उनका अधिकार बेबसी में तब्दील हो गया। कानून का बुलडोजर चलने वाले और समाज में शक्ति व अधिकार का पर्याय बन गए लोग आंसू बहाते हुए सड़कों पर आ गए। यह नया दृश्य था, मीडिया के लिए और समाज के लिए भी। इसकी नोवेल्टी में न्यूज वैल्यू था।
खबरों का प्रदर्शन सिर्फ न्यूज वैल्यू से तय होगा या सामाजिक सरोकार भी कोई चीज है?
सामाजिक जिम्मेदारी से कोई मुंह नहीं मोड़ सकता। लेकिन सिर्फ सामाजिक जिम्मेदारी के निर्वहन से मीडिया का बिजनेस नहीं चल सकता। मीडिया कोई आंदोलन या एनजीओ नहीं है, जो किसी आंतरिक या बाह्य अनुदान से संचालित हो रहा है। इसमें बड़ी पूंजी लगती है। चैनल शुरू करना दो सौ-ढाई सौ करोड़ रुपए का निवेश होता है और अच्छे से अच्छा कंटेंट भी दिखाएं तो हम महीने करोड़ों का नुकसान होता है। इसे गोरखपुर के गीता प्रेस की तरह नो प्राफिट नो लॉस की तर्ज पर नहीं चलाया जा सकता और न स्वांतः सुखाय चलाया जा सकता है। जिस तरह से हर प्रोडक्ट का एक टारगेट होता है, वैसे ही मीडिया का भी एक टारगेट है। उसे ध्यान में रख कर ही खबरें दी जा सकती हैं।
मीडिया का टारगेट क्या है?
मीडिया का टारगेट है, सबके मतलब की खबर देना। इसमें हम ज्यादातर व्यापक समाज के हित की खबरें दिखाते हैं। सरकार पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ाती है तो, इससे धनी लोगों पर जितना असर पड़ता है, उससे ज्यादा प्रभावित आम लोग होते हैं। हम आक्रामक होकर ऐसे मामलों में सरकार को कठघरे में खड़ा करते हैं। इसी तरह से ब्याज दर बढ़ना आम लोगों से जुड़ी खबर है। देश के विभिन्न हिस्सों में भ्रष्टाचार को उजागर करना आम लोगों के सरोकार की खबर है, जो हम दिखाते हैं। एक राष्ट्रीय चैनल या अखबार का टारगेट हमेशा उसका व्यापक पाठक या दर्शक वर्ग ही होगा, जिसकी नब्ज, जिसकी रूचि को समझना सफलता के लिए सबसे जरूरी है। पाठक या दर्शक अंततः उपभोक्ता है, उसे क्या पसंद है और क्या नापसंद इसे समझना जरूरी होता है।
न्यूज वैल्यू तय करने का आधार क्या है?
अगर चैनल के नजरिए से कहें तो- घटना की व्यापकता, उसका विस्तार, उसका संभावित असर और विजुअल इंपैक्ट खबर के चयन का आधार होता है। उदाहरण के लिए एक कॉलोनी में चार मकान गिराए गए और किसी जगह से चार सौ झुग्गियां उजाड़ी गईं, तो निश्चित रूप से झुग्गियों वाली खबर बड़ी खबर बनेगी। सचिन तेंदुलकर ने तीन सौ रन बना कर भारत को एक मैच जिताया और 50 रन बना कर एक मैच जिताया, तो जाहिर है कि तीन सौ रन वाली पारी को ज्यादा तरजीह दी जाएगी और उसका प्रसारण ज्यादा व्यापक पैमाने पर होगा। तो खबर के क्वांटम से जगह तय होगी। इस लिहाज से सीलिंग ज्यादा बड़ी खबर थी। इसका विस्तार पूरी दिल्ली में था। इससे प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा थी। और इसलिए इसे ज्यादा जगह मिली।
सीलिंग से प्रभावितों के प्रति मीडिया में एक किस्म की सहानुभूति दिखी?
मुझे नहीं लगता है कि ऐसा हुआ। लेकिन अगर किसी अखबार या चैनल पर ऐसा दिखा तो यह गलत है। अवैध निर्माण चाहे वह यमुना के पुश्ते पर किसी गरीब द्वारा किया गया हो किसी पॉश कॉलोनी में किसी बड़े आदमी द्वारा। उसे तोड़े जाने की कानूनी कार्रवाई का आकलन वस्तुनिष्ठ आधार पर ही होना चाहिए। व्यापक रूप से ऐसा हुआ भी। चैनलों ने बहुत आक्रामक ढंग से यह दिखाया कि किस तरह से सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने अवैध निर्माण किया और घरों में दुकानें चला रहे हैं। ऐसे नेताओं के प्रति किसी तरह की सहानुभूति का भाव रहा, ऐसा मुझे नहीं लगता।
प्र.- यमुना पुश्ते का विस्थापन हो गया, जबकि सीलिंग रूक गई। इसके पीछे कहीं न कहीं मीडिया द्वारा किए गए व्यापक कवरेज की भूमिका भी रही?
मैं नहीं मानता। सीलिंग से प्रभावित लोग शक्तिशाली और संपन्न थे। उन्होंने धरने और प्रदर्शन प्रायोजित करवाए, उनका राजनीतिक असर व्यापक था, जिससे उन्होंने राजनीतिक दलों को प्रभावित किया। पार्टियां खुद इस कार्रवाई से विचलित थीं और इसे रोकना चाहती थीं और उन्होंने रोक दिया।
प्र.- सीलिंग की तस्वीरें और दृश्य बड़ी सहानुभूति के साथ दिखाए गए, जबकि पुश्ते पर की ऐसी कोई तस्वीर सामने नहीं आई?
मैं तथ्यात्मक रूप से इस बारे में कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं। लेकिन सैद्धांतिक बात यह है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में विजुअल इंपैक्ट काफी महत्वपूर्ण होता है। देश के नामी फैशन डिजाइनर सड़क पर खड़े होकर आंसू बहा रहे हैं और झुग्गी की कोई महिला रो रही है तो जाहिर तौर पर पहली घटना का विजुअल इंपैक्ट ज्यादा होगा। हालांकि नैतिक व मानवीय रूप से यह काफी क्रूर बयान है, लेकिन यह हमारे समय और समाज की हकीकत है। गरीब के आंसू देखने वाले लोगों की संख्या लगातार कम हो रही है। इसके लिए कई कारक जिम्मेदार हैं। मैंने भी 20 साल पहले कुलियों के दृश्य चित्र खींचे हैं, कुष्ठ रोगियों की बस्ती पर एक-एक पन्ने की स्टोरी की है, तब लोग इसे देखते थे, पढ़ते थे, आज लोगों की रुचियां बदल गई हैं। और अगर आप करोड़ों रुपए लगा कर चैनल शुरू करते हैं तो लोगों की रुचियों की अनदेखी नहीं कर सकते।
अजीत द्विवेदी

न्यूज चैनल मास मीडियम नहीं हैं

मीडिया के वर्गभेद पर पांचवी किस्त
अजीत द्विवेदी
न्यूज चैनल मास मीडियम नहीं हैं - आशुतोष
मीडिया के सरोकार कैसे तय होते हैं, क्यों झुग्गियों का विस्थापन मीडिया के लिए बड़ी खबर नहीं है, राजधानी दिल्ली में होने वाली सीलिंग क्यों इलेक्ट्रोनिक और प्रिंट दोनों समाचार माध्यमों के लिए अपने सरोकार की खबर लगने लगती है। ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनकी थोड़ी गहरी पड़ताल से कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। सराय की पिछली चार पोस्टिंग में मैने इस पर कुछ तथ्यात्मक और कुछ सैद्धांतिक चीजें डाली हैं। अपनी पड़ताल के क्रम में मैंने इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े कुछ वरिष्ठ और समझदार पत्रकारों से बातचीत की। इन सवालों से रूबरू होते हुए उन्होंने न सिर्फ इस माध्यम की सीमाओं और बाध्यताओं को रेखांकित किया, बल्कि इसके बदलते रूझानों और सरोकारों के लिए समाज को भी कठघरे में खड़ा किया। अपनी बेबाकी के लिए मशहूर टीवी पत्रकार और संप्रति आईबीएन-7 के मैनेजिंग एडीटर आशुतोष से हुई बातचीत के कुछ अंश इस पोस्ट में डाल रहा हूं।
सवाल – दिल्ली में सीलिगं की खबरों की कवरेज यमुना के पुश्ते से हुए विस्थापन की कवरेज से कई गुना बड़ी थी, जबकि पुश्ते पर का विस्थापन कहीं ज्यादा लोगों को प्रभावित कर रहा था।
जवाब – यमुना पुश्ते के विस्थापन और दिल्ली में सीलिंग की कवरेज अलग-अलग ढंग से हुई। इस बात को समझने के लिए न्यूज चैनलों के बारे में कुछ बुनियादी बातों को समझना जरूरी है। यह अपने आप में एक मिथक है कि न्यूज चैनल एक मास मीडियम हैं और पूरे हिंदुस्तान को रिप्रजेंट करते हैं। इस भ्रांति से उबरने की जरूरत है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि इसकी पॉपुलिरटी के आकलन का एक ही तरीका है और वह है टैम रेटिंग। इस टैम रेटिंग के बक्से गांवों में नहीं लगे हैं और न छोटे शहरों में। इसकी 50 फीसदी रेटिंग सिर्फ दो शहरों – दिल्ली और मुंबई से आती है। बाकी 50 फीसदी में गांवों और छोटे शहरों का कोई हिस्सा नहीं है। और यही से शुरू होता है भेदभाव क्योंकि यह रेटिंग अपने आप में रूरल-अरबन, छोटे-बड़े, अमीर-गरीब आदि डिवाइड को जन्म देता है। दूसरी बात, मीडियम रेवेन्यू ड्रिवेन मीडियम है। इसका संचालन एडवरटाइजर को ध्यान में रख करना होता है। यह देखना होता है कि जिनके बारे में दिखाया जा रहा है और उसे देखने वाले जो संभावित दर्शक हैं उनकी बाईंग कैपेसिटी कैसी है। असल में बाईंग कैपेसिटी वाले ऑडिएंस की जरूरत इस भेदभाव की बुनियाद में है। अगर सीलिंग में आ रहे लोग और उनकी खबरें देखने वाले अच्छी बाईंग कैपेसिटी वाले लोग हैं तो उसकी कवरेज ज्यादा होगी।
सवाल – फिर ऐसे क्यों है दिल्ली में सीलमपुर और मुंबई में एशिया के सबसे बड़े स्लम धारावी में काफी बड़ी संख्या में टैम रेटिंग के बक्से लगे हुए हैं।
जवाब – यह बात आंशिक रूप से सही है। ये इलाके भी अरबन हैं और यह मान कर नहीं चलना चाहिए कि यहां की ऑडिएंस देश के समृद्ध हिस्से की या ग्लैमर या क्रिकेट की खबरें नहीं देखना चाहते।
सवाल – खबरों के चयन का आधार क्या सिर्फ टैम रेटिंग ही है।
जवाब – दरअसल कुछ चीजें सार्वभौमिक हैं। जैसे अगर दक्षिण दिल्ली के किसी उच्च मध्यम वर्ग के व्यक्ति ने आत्महत्या की हो और उसी समय यमुना पार की किसी बस्ती में किसी ने आत्महत्या की है तो न्यूज चैनल दक्षिण दिल्ली की घटना को प्राथमिकता देंगे। जब सापेक्षिक तुलना की बात आएगी तो टैम रेटिंग को ज्यादा तवज्जो दी जाएगी।
सवाल – लेकिन यमुना पुश्ते का विस्थापन और सीलिंग की घटनाओं के बीच तो तीन साल का अंतर है, यहां सापेक्षिक तुलना की बात कैसे आएगी।
जवाब – यहां च्वाइस और प्रायोरिटी की बात है, एडवरटाइजर की बात है, बाईंग कैपेसिटी वाले ऑडिएंस की बात, इस तरह के कई कारण हैं। मैं मानता हूं कि इन सवालों को लेकर मीडिया में कुछ बायस हैं। लेकिन यह पूरी तरह से सही नहीं है कि मीडिया जानबूझ कर किसी वर्ग के प्रति अधिक सहानुभूति दिखाता है।
सवाल- इन दोनों घटनाओं की कवरेज में सिर्फ इतना फर्क नहीं था कि एक को ज्यादा दिखाया और दूसरे को कम, बल्कि एक तरह से मीडिया का स्वर पुश्ते के विस्थापन को सही ठहराने वाला था, जबिक सीलिंग में उसकी स्पष्ट सहानुभूति पीड़ित लोगों के प्रति दिख रही थी।
जवाब – मैं इस बात से इनकार नहीं कर रहा हूं कि थोड़ा बहुत बायस है। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। मैं या कोई भी टेलीविजन चैनल किसी भी गैरकानूनी काम को डिफेंड नहीं कर सकता है। इसलिए मुझे नहीं लगता है कि चैनलों ने अवैध ढंग से रिहायशी इलाकों में व्यावसायिक प्रतिष्ठान चला रहे लोगों को डिफेंड किया और पुश्ते पर अवैध ढंग से बसे लोगों को उजाड़ने की तरफदारी की। अगर किसी स्तर पर कवरेज में थोड़ा भेदभाव दिखा, तो उसे मीडियम की अनिवार्यता मानना चाहिए। शहर में जो सीलिंग हो रही थी, वह बहुत बड़ी घटना था, एक स्वाभाविक आक्रोश सड़कों पर उमड़ा था, उसमें बड़े फैशन मॉडल्स और माल्स सील हो रहे थे, जिसका विजुअल टेलीविजन के लिहाज से प्रभावकारी बन रहा था।
सवाल – फिर क्यों टेलीविजन चैनल आम लोगों या गरीबों की अनदेखी के लिए सरकारों को कठघरे में खड़ा करते हैं, क्या यहां गरीब टैम रेटिंग की कसौटी पर खरा उतरते हैं।
जवाब – यहां पहली चीज खबर होती है। सरकार की नीतियां चाहें किसी एक वर्ग के खिलाफ हों या फायदे में, सिर्फ उस वर्ग की खबर नहीं होती हैं।
सवाल – जिस समय पुश्ते पर विस्थापन हुआ, उसके तीन महीने बाद लोकसभा चुनाव होने वाले थे और इस लिहाज से यह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना थी। ऐसे में मानवीय आधार पर न सही, राजनीतिक आधार पर तो इसे कवर किया जाना चाहिए था।
जवाब – पोलिटिक्स खुद ही टेलीविजन की खबरों से गायब है। अब वो जमाना नहीं रहा, जब पीएम या सीएम का बयान पहली खबर बन जाया करते थे। अब पोलिटिकल इवेंट खबर के तौर पर हाशिए पर चले गए हैं। जब पोलिटिक्स खबर को डिफाइन नहीं कर रही है तो उससे प्रभावित होने या उसे प्रभावित करने वाली घटना अपने आप खबर के दायरे से बाहर हो जाती है।
सवाल – टेलीविजन की खबरों में मानवीय सरोकारों के लिए कितनी जगह बची है।
जवाब – आर्थिक सुधारों के लागू होने के बाद मानवीय सरोकार के लिए हर जगह स्पेस कम हुआ है। अगर खासतौर से टेलीविजन न्यूज चैनलों के सरोकारों के बारे में बात करें तो यह ध्यान रखना चाहिए, व्यापक रूप से जिसे सरोकारों से भटकाव माना जा रहा है, वह दरअसल एक सामाजिक बदलाव है। मीडिया मानवीय सरोकारों से दूर नहीं हुआ है। लोगों की गलती ये है कि वे इन सरोकारों को एक दशक या उससे भी पुराने चश्मे से देख रहे हैं। हकीकत यह है कि मीडिया ने आम आदमी को ज्यादा ताकतवर बनाया है। इसने आम आदमी को एक बड़ा प्लेटफार्म दिया है। साथ ही इसने देश के कल्चरल यूनिफिकिशेन के बेहद जरूरी काम को भी अंजाम दिया है।

मीडिया की नजर

मीडिया की नजर में सीलिंग बनाम पुश्ते का विस्थापन
मीडिया का सर्वव्याप्तिकरण एक किस्म का आश्वासन देता है कि लोकतन्त्र टिका हुआ रहेगा. जब सर्वव्याप्तिकरण की बात चली है तो इस पर भी विचार कर लिया जाए कि इसकी व्याप्ति कहां-कहां तक है. यह नेताओं के बेडरूम तक पहुंचा हुआ है. इसकी पहुंच नेताओं और नौकरशाहों के दफ्तर तक है, जहां रिश्वत का ब्यापार चलता है. यह महानायकों के घरों तक भी पहुंचा हुआ है. इसकी पहुंच साठ फीट गहरे गढे तक भी है. सन्सद से लेकर सडक तक मीडिया ही तो है. यह नेताओं को बेनकाब करता है, भ्रष्टाचार पकडता है. इसके चलते एक दर्जन सान्सदं की कुर्सी गयी. ये और इस तरह की बहुत सारी बातें पिछले दिनो आये हंस पत्रिका के विशेष अंक मे मीडिया के प्रमुख लोगों ने कहे हैं. ऐसा ही कुछ दिखता भी है इसलिए इसे नही मानने की कोई वजह नही है. लेकिन क्या मीडिया के इस सर्वव्याप्तिकरण की दशा और दिशा दोनों पूरी तरह सही हैं? यह विवाद का विषय है. मुझे खुद भी इस पर सन्देह है इसलिए जब दिल्ली मे सीलिन्ग चल रही थी तो इसके मीडिया कवरेज पर मैंने बारीकी से नजर रखी थी. मेरे जेहन मे कुछ ही समय पहले यमुना के पुश्ते पर हुए विस्थापन की तस्वीरें भी थीं. दोनों के मीडिया कवरेज के तुलनात्मक विश्लेषण से कई रोचक तथ्य सामने आए. इनमें से यह एक तथ्य प्रमुखता से उभरा कि भारतीय मीडिया एक किस्म के वर्गभेद का शिकार है. इस वर्गभेद के कई कारण हैं, जिनका विश्लेषण आगे होगा. मीडिया में जाति को लेकर कुछ अध्ययन पहले हुए हैं, उनका भी जिक्र होगा. लेकिन इसकी शुरुआती तस्वीर मैं बताना चाहूंगा. हमारा राष्ट्रीय मीडिया जब सीलिन्ग को कवर कर रहा था तो उसका नजरिया कुछ ऐसा था जैसे राजधानी के आम आदमी पर सरकार जुल्म ढा रही है. लोगों द्वारा किए गए अवैध निर्माण का मसला नेप्थ्य मे चला गया था. अवैध निर्माण मीडिया की नजर मे सेकेन्डरी मसला था. मुख्य मसला लोगों को उनके घरों से हटाने का था. लेकिन जब यही मीडिया यमुना पुश्ते के विस्थापन को कवर करता है तो उसका नजरिया बदल जाता है. उस समय हजारों लोगों को भेड बकरियों कि तरह उनके घरों से निकाल कर किसी ऐसी जगह भेज देना जहां बुनियादी सुविधाओं का भी अता पता न हो, मीडिया के लिए मुख्य मसला नही था. तब मुख्य मसला अवैध निर्माण, यमुना का सौदर्यीकरण और यहां तक कि आईटीओ की सडक का जाम होना था. ये खबर अखबार और चैनलों की सुर्खियों मे थोडे समय के लिए आए लेकिन बिल्कुल राजनीतिक कारण से. तब मीडिया मे यह कयास लगाया जाता रहा कि थोडे समय बाद होने वाले लोकसभा चुनाव पर इसका क्या असर होगा. न तो इसे रोकने का कोई आन्दोलन चला और न कोई अध्यादेश आया. एमसीडी के चुनाव ने सीलिन्ग रुकवा दी, लेकिन लोकसभा का चुनाव पुश्ते का विस्थापन नहीं रोक सका. इसके भी कई राजनीतिक और सामाजिक आयाम हैं, जिन पर आगे विचार किया जाएगा. आज इतना ही. यूनिकोड में लिखने का पहला अनुभव है इसलिए कुछ अशुधियां होंगी. इसके बाद शायद ये अशुधियां न मिलें. आगे अध्ययन के निष्कर्ष और उस पर आधारित अपनी राय लेकर सराय पर नियमित मिलूंगा.
\n\u003cp\>परिचय -हिंदी पत्रकारिता से जुडा हूं और कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ भी सक्रिय हूं. \u003c/p\>\n\u003cp\>धन्यवाद\u003cbr\>अजीत कुमार द्विवेदी\u003c/p\>\n\u003cp\> \u003c/p\>\n",0]
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सीलिंग और विस्थापन की राजनीति

दिल्ली की सीलिंग और यमुना पुश्ते के विस्थापन के मीडिया कवरेज पर दूसरी किश्त
दोस्तो दिल्ली में अवैध निर्माण तोडने और सीलिंग लागू करने के अभियान की मीडिया कवरेज यमुना पुश्ते पर हुये विस्थापन की कवरेज से किस तरह और कितना भिन्न है इसे समझने के लिये यह जानना जरूरी है कि ये दोनों घटनायें क्यों और किन परिस्थितियों में शुरू हुईं. इसके साथ-साथ यह जानना भी जरूरी है कि आखिर इससे सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोग कौन हैं. सबसे पहले सीलिंग की बात करते हैं. २००५ के साल में दिसंबर का महीना था. दिल्ली की सर्दी अपने पूरे शबाब पर थी. तभी अदालत के फरमान से दिल्ली में सीलिंग की शुरुआत हुई. वैसे दिल्ली के अवैध निर्माण को लेकर कई याचिकायें काफी पहले से दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित थीं. दिसंबर २००५ में सुनवाई के बाद अदालत ने सख्त रुख अख्तियार करते हुये आदेश दिया की अवैध निर्माण तोडने की प्रक्रिया तत्काल शुरू कि जाये और सारे अवैध निर्माण जिनकी सूची दिल्ली नगर निगम यानी एमसीडी के पास है उन्हें एक महीने के भीतर तोड दिया जाये. १८ दिसंबर २००५ को एमसीडी ने दिल्ली पुलिस की मदद से अवैध निर्माण तोडना शुरू किया. इस अभियान से पूरी दिल्ली में हंगामा मच गया. यह एक दोहरा अभियान था, जिसमें न सिर्फ अवैध निर्माण तोडा जाने वाला था, बल्कि रिहायशी इलाकों में चल रही कारोबारी गतिविधियों को भी बंद किया जाना था. अवैध निर्माण और रिहायशी इलाकों में कारोबारी गतिविधियां चलाने वाले वे लोग थे, जिनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां इतनी बेहतर थीं कि वे अवैध काम कर सकते थे. दिल्ली में रहने वालों को पता है कि यहां कोई भी अवैध निर्माण करना कितना कठिन होता है. इसके लिये हमेशा आपके साथ रहने का दावा करने वाली दिल्ली पुलिस को साधना होगा, एमसीडी के अधिकारियों को पटाना होगा, फिर पानी और बिजली वाले विभाग के अधिकारियों को भी किसी न किसी तरह से साथ मिलाना होगा तब जाकर बात बनेगी. ये सारे काम या तो पैसे के दम पर होंगे या किसी बहुत ऊंची पैरवी के दम पर. बगैर किसी पक्के आकलन के कहा जा सकता तमाम या ज्यादातर अवैध निर्माण उन लोगों के थे, जिनके पास अवैध और अनाप-शनाप पैसा है. क्योंकि अपनी मेहनत की कमाई को अवैध निर्माण मे नहीं लगाता, दूसरे कोई बैंक अवैध निर्माण के लिये कर्ज भी नहीं देता. इसलिये जाहिर है कि अदालत के निर्देश पर शुरू हुये इस अभियान का नकारात्मक असर इस महानगर के अगर सबसे प्रभावशाली नहीं तो कम से कम प्रभावशाली वर्ग के उपर पडना था और कायदे से अगर ये अभियान चलता रहता तो दिल्ली के भू माफिया, बिल्डर लाबी, भ्रश्ट अधिकारियों और नेताओं का गठजोड उजागर हो जाता. इससे स्पश्ट है की जिन लोगों को इस अभियान से नुकसान होना था वे ऐसे लोग थे जिनके हितों को बचाने की जिम्मेदारी नेताओं, अधिकारियों और काफी हद तक मीडिया की भी थी.
जो लोग इस अभियान के खिलाफ सडकों पर उतरे उन्हें देखकर तस्वीर और साफ हो जाती है. भाजपा नेता सबसे प्रमुखता से सडक पर उतरे. कांग्रेस के नेता चाह कर भी ऐसा इसलिये नहीं कर पाये क्योंकि दिल्ली और केन्द्र दोनों जगह उनकी सरकार थी. लेकिन परदे के पीछे से उन्होंने यह व्यवस्था कर दी कि यह अभियान दम तोड दे. सीलिंग का शिकार हो रहे वर्ग और उसके खिलाफ खडे लोगों के हित एक थे और चूंकि मीडिया के हित भी इसी वर्ग से जुडे हैं (प्रत्यक्ष भी और परोक्ष भी) इसलिये इस विरोध को इतना मुखर स्वर मिला. \n\u003cbr\>पुश्ते के विस्थापन की स्थितियों, उससे प्रभावित हो रहे लोगों की वर्गीय हैसियत, इसके प्रति सीलिंग के विरोध में खडे वर्ग का नजरिया और उसमें मीडिया की भूमिका पर अगली किश्त बहुत जल्दी.\u003cbr\>अजीत द्विवेदी\n",0]
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जो लोग इस अभियान के खिलाफ सडकों पर उतरे उन्हें देखकर तस्वीर और साफ हो जाती है. भाजपा नेता सबसे प्रमुखता से सडक पर उतरे. कांग्रेस के नेता चाह कर भी ऐसा इसलिये नहीं कर पाये क्योंकि दिल्ली और केन्द्र दोनों जगह उनकी सरकार थी. लेकिन परदे के पीछे से उन्होंने यह व्यवस्था कर दी कि यह अभियान दम तोड दे. सीलिंग का शिकार हो रहे वर्ग और उसके खिलाफ खडे लोगों के हित एक थे और चूंकि मीडिया के हित भी इसी वर्ग से जुडे हैं (प्रत्यक्ष भी और परोक्ष भी) इसलिये इस विरोध को इतना मुखर स्वर मिला. पुश्ते के विस्थापन की स्थितियों, उससे प्रभावित हो रहे लोगों की वर्गीय हैसियत, इसके प्रति सीलिंग के विरोध में खडे वर्ग का नजरिया और उसमें मीडिया की भूमिका पर अगली किश्त बहुत जल्दी.अजीत द्विवेदी

सौंदर्यीकरण का विखंडनवादी पाठ

दिल्ली में सीलिंग बनाम पुश्ते पर से विस्थापन के मीडिया कवरेज की तीसरी किस्त
अपनी पिछली किस्त में मैंने सीलिंग के कारणों, उससे प्रभावित होने वाले लोगों के आंदोलन, उसके असर (खासकर दिल्ली नगर निगम चुनावों के संदर्भ में) आदि की चर्चा की थी। उसके अपने राजनीतिक और सामाजिक आयाम थे। इस बार यमुना पुश्ते पर से झुग्गियों के उजाड़े जाने, उससे प्रभावित होने वाले लोगों और कथित रूप से दिल्ली व यमुना के सौंदर्यीकरण अभियान पर हम चर्चा करेंगे।
विस्थापन हमेशा से राजनीतिक मुद्दा रहा है। यमुना पुश्ते का विस्थापन इसका अपवाद नहीं है। इसे लेकर भी काफी अरसा राजनीति हो रही। खास कर केंद्र में एनडीए सरकार के कामकाज के पांच सालों तक क्योंकि जब केंद्र में भाजपानीत एनडीए की सरकार थी, उस समय दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। ऊपर से यमुना पुश्ते पर बसी करीब साढ़े तीन लाख लोगों की आबादी में करीब 70 फीसदी मुसलमान थे, जो बुनियादी रूप से बिहार, उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे और पारंपरिक रूप से कांग्रेस के वोटर थे। इसलिए जब पर्यटन और संस्कृति मंत्री जगमोहन ने यमुना के सौंदर्यीकरण के नाम पर विस्थापन की योजना को कार्यरूप देना शुरू किया तो कांग्रेस नेताओं ने इसका विरोध किया।
पुश्ते पर विस्थापन की प्रक्रिया काफी पहले से जारी थी और जब फरवरी 2003 में महाअभियान शुरू हुआ उस समय तक करीब एक लाख लोग यहां से जा चुके थे। फरवरी 2003 में विस्थापन की महामुहिम शुरू हुई। लेकिन जल्दी ही छह झुग्गी वालों की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पांच फरवरी 2003 को विस्थापन की मुहिम पर रोक लगा दी थी। लेकिन मार्च 2003 की शुरुआत में दिल्ली हाईकोर्ट की दो जजों चीफ जस्टिस बीसी पटेल और बीडी अहमद की खंडपीठ ने इस रोक को हटा दिया। हाईकोर्ट के इस फैसले से पहले चुनाव आयोग ने भी अपने पुराने आदेश में संशोधन करते हुए यमुना पुश्ते से विस्थापन को मंजूरी दे दी। गौरतलब है कि 2003 की मई में होने वाले लोकसभा चुनाव की वजह से पहले चुनाव आयोग ने विस्थापन की गतिविधियां रोकने का आदेश दिया था। आश्चर्य की बात यह है कि दिल्ली नगर निगम ने चुनाव आयोग से यमुना पुश्ते के अलावा आरके पुरम की धापा झुग्गी, माता सुंदरी मार्ग की तीन झुग्गि बस्तियों और कबीर बस्ती को भी खाली कराने की अनुमति मांगी थी, लेकिन आयोग ने सिर्फ यमुना पुश्ते से विस्थापन को मंजूरी दी और बाकी तीन झुग्गी बस्तियों से किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करने का निर्देश दिया। आयोग का यह फैसला निःसंदेह अतार्किक था।
\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>बहरहाल दिल्ली हाईकोर्ट और चुनाव आयोग की मंजूरी मिलने के बाद नगर निगम ने दिल्ली पुलिस की मदद मांगी और यमुना पुश्ते से विस्थापन शुरू हो गया। करीब दो दशक से बसे हुए लोगों को वहां से उजाड़ दिया गया, बगैर पुनर्वास की पुख्ता व्यवस्था किए। मकसद था यमुना को लंदन की टेम्स नदी की तरह विकसित करना और इसके दोनों किनारों पर खूबसूरत मॉल बनाना। जब झुग्गियों का उजड़ना शुरू हुआ तो जम के राजनीति हुई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपने मंत्रियों-विधायकों के साथ इसका विरोध करने पहुंची तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी विस्थापितों के लिए बनाई गई पुनर्वास कॉलोनी होलंबी कलां पहुंच गईं। नतीजा यह हुआ कि मई 2003 के चुनाव में पुनर्वास बस्तियों के लोगों ने भारी संख्या में मतदान में हिस्सा लेकर उन्हें उजाड़ने वाले मंत्री जगमोहन को हरा दिया। उनके हारने के साथ ही यमुना के टेम्स नदी बनाने का फामूर्ला भी दफन हो गया। लेकिन केंद्र में कांग्रेस की जीत भी उजाड़े गए लोगों की पीड़ा को कम नहीं कर सकी। इस चुनाव के बाद करीब तीन साल कर केंद्र, राज्य और दिल्ली नगर निगम तीनों पर कांग्रेस का कब्जा रहा, लेकिन पुनर्वास बस्तियों का कल्याण नहीं हुआ। \n\u003c/span\>\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>जो उजाड़े गए उनके पास अपना सामान पुनर्वास बस्तियों तक ले जाने का साधन नहीं था। मार्च महीने में बोर्ड की परीक्षाएं चल रही थीं लेकिन इन बस्तियों के छात्र अपने टूटते-बिखरते आशियाने को अपने माता-पिता के साथ सहेजने में लगे थे। विस्थापन की इस महामुहिम में सिर्फ घर नहीं उजड़े थे, हजारों लोगों की आजीविका छीन गई थी, जो सालों से वहां छोटी-मोटी दुकाने लगा कर कारोबार करते थे और अपने परिवार का पेट पालते थे। शहर से करीब 30 किलोमीटर दूर बसी पुनर्वास कॉलोनियों में जाने के बाद किसी के लिए दिल्ली में आकर काम करना संभव नहीं था। इस वजह से हजारों लोग दशकों की मेहनत-मशक्कत के बाद खाली हाथ घर लौटने को मजबूर हुए। जो थोड़े से लोग पुनर्वास बस्तियों में गए उनके लिए राह और कठिन थी। एक तरफ तो लोग यह प्रमाणित करने में लगे थे कि वे 1990 या उससे भी पहले से इन कॉलोनियों में रहते हैं तो दूसरी ओर ऐसी लूट मची थी कि पुलिस की मिलीभगत से ढेर सारे फर्जी लोगों को पुश्ते पर की बस्तियों में बसे होने का प्रमाणपत्र दिया जा रहा था और पुनर्वास कॉलोनियों में जमीन आवंटित की जा रही थी। इसमें बिल्डर माफिया के लोग भी शामिल थे।\n",1]
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बहरहाल दिल्ली हाईकोर्ट और चुनाव आयोग की मंजूरी मिलने के बाद नगर निगम ने दिल्ली पुलिस की मदद मांगी और यमुना पुश्ते से विस्थापन शुरू हो गया। करीब दो दशक से बसे हुए लोगों को वहां से उजाड़ दिया गया, बगैर पुनर्वास की पुख्ता व्यवस्था किए। मकसद था यमुना को लंदन की टेम्स नदी की तरह विकसित करना और इसके दोनों किनारों पर खूबसूरत मॉल बनाना। जब झुग्गियों का उजड़ना शुरू हुआ तो जम के राजनीति हुई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपने मंत्रियों-विधायकों के साथ इसका विरोध करने पहुंची तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी विस्थापितों के लिए बनाई गई पुनर्वास कॉलोनी होलंबी कलां पहुंच गईं। नतीजा यह हुआ कि मई 2003 के चुनाव में पुनर्वास बस्तियों के लोगों ने भारी संख्या में मतदान में हिस्सा लेकर उन्हें उजाड़ने वाले मंत्री जगमोहन को हरा दिया। उनके हारने के साथ ही यमुना के टेम्स नदी बनाने का फामूर्ला भी दफन हो गया। लेकिन केंद्र में कांग्रेस की जीत भी उजाड़े गए लोगों की पीड़ा को कम नहीं कर सकी। इस चुनाव के बाद करीब तीन साल कर केंद्र, राज्य और दिल्ली नगर निगम तीनों पर कांग्रेस का कब्जा रहा, लेकिन पुनर्वास बस्तियों का कल्याण नहीं हुआ।
जो उजाड़े गए उनके पास अपना सामान पुनर्वास बस्तियों तक ले जाने का साधन नहीं था। मार्च महीने में बोर्ड की परीक्षाएं चल रही थीं लेकिन इन बस्तियों के छात्र अपने टूटते-बिखरते आशियाने को अपने माता-पिता के साथ सहेजने में लगे थे। विस्थापन की इस महामुहिम में सिर्फ घर नहीं उजड़े थे, हजारों लोगों की आजीविका छीन गई थी, जो सालों से वहां छोटी-मोटी दुकाने लगा कर कारोबार करते थे और अपने परिवार का पेट पालते थे। शहर से करीब 30 किलोमीटर दूर बसी पुनर्वास कॉलोनियों में जाने के बाद किसी के लिए दिल्ली में आकर काम करना संभव नहीं था। इस वजह से हजारों लोग दशकों की मेहनत-मशक्कत के बाद खाली हाथ घर लौटने को मजबूर हुए। जो थोड़े से लोग पुनर्वास बस्तियों में गए उनके लिए राह और कठिन थी। एक तरफ तो लोग यह प्रमाणित करने में लगे थे कि वे 1990 या उससे भी पहले से इन कॉलोनियों में रहते हैं तो दूसरी ओर ऐसी लूट मची थी कि पुलिस की मिलीभगत से ढेर सारे फर्जी लोगों को पुश्ते पर की बस्तियों में बसे होने का प्रमाणपत्र दिया जा रहा था और पुनर्वास कॉलोनियों में जमीन आवंटित की जा रही थी। इसमें बिल्डर माफिया के लोग भी शामिल थे।
\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>जो लोग पुनर्वास बस्तियों में गए, उनके सामने दिल्ली सरकार का एक कानून बाधा बन कर खड़ा था। दिल्ली सरकार का एक कानून है, जिसके मुताबिक जो लोग 1990 से पहले दिल्ली में आकर बसे हैं, उन्हें सात हजार तक रुपए दिए जाएंगे और होलंबी कला या भलस्वां में 18 वर्ग गज जमीन दी जाएगी। जो लोग 1990 से 98 के बीच दिल्ली में आकर बसे हैं, उन्हें \n12.5 वर्ग गज का प्लाट दिया जाएगा। लेकिन ये प्लाट मुफ्त में नहीं मिलने वाले थे। दिल्ली सरकार ने 18 वर्ग गज के प्लाट की कीमत 30 हजार रुपए रखी थी। मुआवजे के रूप में मिले सात हजार रुपए से 30 हजार की जमीन खरीदना सबके वश की बात नहीं थी। ऊपर से अधिकारियों की मिलीभगत के कारण बिल्डर माफिया उजड़ रहे लोगों को हतोत्साहित भी कर रहा था और उन्हें जमीन बेच देने के लिए प्रेरित कर रहा था। कुछ नगर निगम की खामी, कुछ पैसे की कमी और कुछ बिल्डर माफिया व पुलिस व निगम कर्मचारियों की मिलीभगत का नतीजा यह हुआ कि यमुना पुश्ते से विस्थापित होने वाले महज 16 फीसदी लोगों को ही पुनर्वास कॉलोनियों में प्लाट मिल सका। सरकार के इस अभियान ने आपातकाल की याद दिला दी। उस समय दिल्ली में करीब सात लाख लोग विस्थापित हुए थे। जबकि 2003 और इससे पहले के तीन सालों में दिल्ली में करीब आठ लाख लोग विस्थापित हुए। विस्थापन के इन दोनों अभियानों में करीब 30 साल का अंतराल था लेकिन उजड़ने वाले गरीब और पिछड़े लोगों के अलावा इसमें एनडीए सरकार के केंद्रीय मंत्री जगमोहन का नाम कॉमन था। \n\u003c/span\>\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>इस विस्थापन की कई वजहें बताई गईं थी, जिनमें एक वजह यह भी थी कि यमुना किनारे बसी ये झुग्गियां यमुना को प्रदूषित कर रही हैं। शहरी समस्याओं पर अध्ययन करने वाली एक संस्था हैजार्ड सेंटर ने एक अध्ययन के आधार पर बताया कि यमुना गिरने वाले 3296 एमएलडी प्रदूषित जल में से पुश्ते की बस्तियों का हिस्सा महज \n2.96 एमएलडी है। बाकी सारा प्रदूषित जल और गंदगी पक्की और कथित रूप से नियोजित बस्तियों से आती है। यमुना के तल को नुकसान पहुंचाने की दुहाई देकर बस्तियां उजाड़ने वाले लोगों ने ही यमुना किनारे विशाल अक्षरधाम मंदिर बनाने की मंजूरी दी थी। इस भेदभाव का कोई तर्क क्या लालकृष्ण आडवाणी या जगमोहन के पास है। झुग्गियों के लोगों के पुनर्वास की योजनाओं के प्रति दिल्ली विकास प्राधिकरण कितना गंभीर था, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगता है कि उसने ऐसी बस्तियों में रहने वालों के लिए \n",1]
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जो लोग पुनर्वास बस्तियों में गए, उनके सामने दिल्ली सरकार का एक कानून बाधा बन कर खड़ा था। दिल्ली सरकार का एक कानून है, जिसके मुताबिक जो लोग 1990 से पहले दिल्ली में आकर बसे हैं, उन्हें सात हजार तक रुपए दिए जाएंगे और होलंबी कला या भलस्वां में 18 वर्ग गज जमीन दी जाएगी। जो लोग 1990 से 98 के बीच दिल्ली में आकर बसे हैं, उन्हें 12.5 वर्ग गज का प्लाट दिया जाएगा। लेकिन ये प्लाट मुफ्त में नहीं मिलने वाले थे। दिल्ली सरकार ने 18 वर्ग गज के प्लाट की कीमत 30 हजार रुपए रखी थी। मुआवजे के रूप में मिले सात हजार रुपए से 30 हजार की जमीन खरीदना सबके वश की बात नहीं थी। ऊपर से अधिकारियों की मिलीभगत के कारण बिल्डर माफिया उजड़ रहे लोगों को हतोत्साहित भी कर रहा था और उन्हें जमीन बेच देने के लिए प्रेरित कर रहा था। कुछ नगर निगम की खामी, कुछ पैसे की कमी और कुछ बिल्डर माफिया व पुलिस व निगम कर्मचारियों की मिलीभगत का नतीजा यह हुआ कि यमुना पुश्ते से विस्थापित होने वाले महज 16 फीसदी लोगों को ही पुनर्वास कॉलोनियों में प्लाट मिल सका। सरकार के इस अभियान ने आपातकाल की याद दिला दी। उस समय दिल्ली में करीब सात लाख लोग विस्थापित हुए थे। जबकि 2003 और इससे पहले के तीन सालों में दिल्ली में करीब आठ लाख लोग विस्थापित हुए। विस्थापन के इन दोनों अभियानों में करीब 30 साल का अंतराल था लेकिन उजड़ने वाले गरीब और पिछड़े लोगों के अलावा इसमें एनडीए सरकार के केंद्रीय मंत्री जगमोहन का नाम कॉमन था।
इस विस्थापन की कई वजहें बताई गईं थी, जिनमें एक वजह यह भी थी कि यमुना किनारे बसी ये झुग्गियां यमुना को प्रदूषित कर रही हैं। शहरी समस्याओं पर अध्ययन करने वाली एक संस्था हैजार्ड सेंटर ने एक अध्ययन के आधार पर बताया कि यमुना गिरने वाले 3296 एमएलडी प्रदूषित जल में से पुश्ते की बस्तियों का हिस्सा महज 2.96 एमएलडी है। बाकी सारा प्रदूषित जल और गंदगी पक्की और कथित रूप से नियोजित बस्तियों से आती है। यमुना के तल को नुकसान पहुंचाने की दुहाई देकर बस्तियां उजाड़ने वाले लोगों ने ही यमुना किनारे विशाल अक्षरधाम मंदिर बनाने की मंजूरी दी थी। इस भेदभाव का कोई तर्क क्या लालकृष्ण आडवाणी या जगमोहन के पास है। झुग्गियों के लोगों के पुनर्वास की योजनाओं के प्रति दिल्ली विकास प्राधिकरण कितना गंभीर था, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगता है कि उसने ऐसी बस्तियों में रहने वालों के लिए
\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>अब है लाख टके का सवाल कि जब ये लोग उजाड़े जा रहे थे तब जनता की आवाज उठाने वाले अखबार और 24 घंटे चलने वाले समाचार चैनल क्या कर रहे थे। न्यूज चैनल खबरों का चयन टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) के आधार पर करते हैं। टीआरपी शहरों और टीआरपी घरों पर खास ध्यान रखा जाता है। चूंकि झुग्गी उजड़ने की खबरें टीआरपी नहीं देती हैं, (हां, अगर झुग्गियों में बलात्कार या हत्या की खबर हो, वहां भूत-प्रेत हों, कोई पुनर्जन्म की कहानी हो या नाग-नागिन का बदलानुमा सनसनीखेज कहानी बन रही हो तो उसे दिखाया जा सकता है क्योंकि ऐसी खबरों में झुग्गी गौण हो जाती है और सनसनी मुख्य तत्व हो जाती है) इसलिए झुग्गियों की खबरें नहीं दिखाई गईं। अखबारों के खास कर अंग्रेजी अखबारों और उनके पाठकों के सरोकार झुग्गियों से नहीं जुड़ते हैं, बल्कि उन्हें भी लगता है कि ये झुग्गियां शहर के माथे पर बदनुमा दाग हैं और इन्हें जितनी जल्दी हटाया जाए, उतना अच्छा है। इसलिए वहां खबर तो रही, लेकिन इस अभियान का स्वागत करती हुई। जहां तक हिंदी के अखबारों का सवाल है तो वे अंग्रेजी अखबारों की अंधी नकल में व्यस्त हैं और महंगे विज्ञापन हासिल करने के लिए मध्यवर्ग को लुभाने में लगे हैं, यह अलग बात है कि उनका सारा प्रसार नए साक्षर और पिछडे वर्गों की वजह से बढ़ रहा है। मध्यवर्ग को लुभाने की अपनी इस कोशिश में उन्होंने भी या तो इस खबर की अनदेखी की या जैसे-तैसे छाप कर अपने कर्तव्य की इतिश्री की। \n\u003c/span\>\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>एक अंग्रेजी अखबार ने इस अभियान को रिकंस्ट्रक्टिंग यमुना का नाम दिया, जिसने दिल्ली में सीलिंग को डिकंस्ट्रक्टिंग दिल्ली का नाम दिया था। \n\u003c/span\>\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>अगली किस्त में मीडिया की नजर में दिल्ली का रिकंस्ट्रक्शन बनाम दिल्ली का डिकंस्ट्रक्शन पर चर्चा करेंगे। उसी में यमुना पुश्ते के विस्थापन को कवर करने में मीडिया का वर्ग, वर्ण और नस्ल भेद भी सामने आएगा। \n",1]
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16.2 लाख घर बनाने की घोषणा की थी, लेकिन उसने कुल घर बनाए 5.96 लाख और इनमें से कोई भी घर ऐसा नहीं था, जो झुग्गियों के लोग अफोर्ड कर सकें।
अब है लाख टके का सवाल कि जब ये लोग उजाड़े जा रहे थे तब जनता की आवाज उठाने वाले अखबार और 24 घंटे चलने वाले समाचार चैनल क्या कर रहे थे। न्यूज चैनल खबरों का चयन टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) के आधार पर करते हैं। टीआरपी शहरों और टीआरपी घरों पर खास ध्यान रखा जाता है। चूंकि झुग्गी उजड़ने की खबरें टीआरपी नहीं देती हैं, (हां, अगर झुग्गियों में बलात्कार या हत्या की खबर हो, वहां भूत-प्रेत हों, कोई पुनर्जन्म की कहानी हो या नाग-नागिन का बदलानुमा सनसनीखेज कहानी बन रही हो तो उसे दिखाया जा सकता है क्योंकि ऐसी खबरों में झुग्गी गौण हो जाती है और सनसनी मुख्य तत्व हो जाती है) इसलिए झुग्गियों की खबरें नहीं दिखाई गईं। अखबारों के खास कर अंग्रेजी अखबारों और उनके पाठकों के सरोकार झुग्गियों से नहीं जुड़ते हैं, बल्कि उन्हें भी लगता है कि ये झुग्गियां शहर के माथे पर बदनुमा दाग हैं और इन्हें जितनी जल्दी हटाया जाए, उतना अच्छा है। इसलिए वहां खबर तो रही, लेकिन इस अभियान का स्वागत करती हुई। जहां तक हिंदी के अखबारों का सवाल है तो वे अंग्रेजी अखबारों की अंधी नकल में व्यस्त हैं और महंगे विज्ञापन हासिल करने के लिए मध्यवर्ग को लुभाने में लगे हैं, यह अलग बात है कि उनका सारा प्रसार नए साक्षर और पिछडे वर्गों की वजह से बढ़ रहा है। मध्यवर्ग को लुभाने की अपनी इस कोशिश में उन्होंने भी या तो इस खबर की अनदेखी की या जैसे-तैसे छाप कर अपने कर्तव्य की इतिश्री की।
एक अंग्रेजी अखबार ने इस अभियान को रिकंस्ट्रक्टिंग यमुना का नाम दिया, जिसने दिल्ली में सीलिंग को डिकंस्ट्रक्टिंग दिल्ली का नाम दिया था।
अगली किस्त में मीडिया की नजर में दिल्ली का रिकंस्ट्रक्शन बनाम दिल्ली का डिकंस्ट्रक्शन पर चर्चा करेंगे। उसी में यमुना पुश्ते के विस्थापन को कवर करने में मीडिया का वर्ग, वर्ण और नस्ल भेद भी सामने आएगा।
\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan\>\u003cfont face\u003d\"Times New Roman\"\> \u003c/font\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan\>\u003cfont face\u003d\"Times New Roman\"\> \u003c/font\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n",0]
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सीलिंग बनाम पुश्ते का विस्थापन

मीडिया का वर्ग भेद
चौथी किश्त
सीलिंग बनाम यमुना पुश्ते का विस्थापन
अजीत द्विवेदी
मीडिया मस्ती की खबरें करता है। मूड की खबरें करता है। भारत-आस्ट्रेलिया का मैच हो तो एक दिन पहले मेट्रो मूड से लेकर कस्बे तक के मूड की खबर ली जाती है। भारत हारे या जीते दोनों ही स्थितियों में मैच के अगले दिन रिएक्शन स्टोरी आती है। खबरिया चैनल तो हाथ के हाथ रिएक्शन स्टोरी भी दिखा देते हैं। पॉप, रॉक, भांगड़ा गायकों-नर्तकों की मस्ती की खबरें मीडिया का पहला सरोकार हैं। ऐसे में अगर कोई मूड बिगाड़ने वाली खबर आ जाए तो उसका क्या करें। जब ऐसी खबरें आती हैं तब उसके आकलन के दूसरे आधार तलाशे जाते हैं। मस्ती और मूड में एक किस्म की सार्वभौमिकता है। शकीरा और लोपेज से लेकर माधुरी दीक्षित और राखी सावंत तक सब एक स्केल से मापे जाते हैं। पर इनसे इतर जो खबरें होती हैं, उनके आकलन के पैमाने अलग-अलग होते हैं। दिल्ली में सीलिंग और यमुना पुश्ते पर विस्थापन ये दो ऐसे मुद्दे हैं, जो मेट्रो मूड की खबरों से अलग हैं। इसलिए जब ये दोनों खबरें ब्रेक हुईं तो सारे सार्वभौमिक पैमाने ध्वस्त हो गए। न तो मस्ती और मूड के पैमाने याद रहे और न चैनलों की जीवन रेखा बन चुका टीआरपी का पैमाना याद रहा। तब आकलन का आधार वर्ग और काफी हद तक वर्ण बना और इसलिए दोनों के प्रसारण-मुद्रण में एक बड़ा भेदभाव दिखा, जिसकी चर्चा पिछली तीन किस्तों से मैं कर रहा हूं।
जिस तरह से अखबार में खबरों का महत्व इस बात से तय होता है कि खबर कितने कॉलम की है, उसकी हेडिंग कितने प्वाइंट में है, किस पन्ने पर छपी है, उसी तरह से टेलीविजन में उसका महत्व इससे तय होता है कि रन डाउन में उसे किस नंबर पर रखा गया, कितनी बार उसे हेडलाइन में दिखाया गया है, उस पर कितनी देर का पैकेज बना या उस पर कोई आधे-एक घंटे का प्रोग्राम बना या नहीं। यहां एक फर्क समझना जरूरी है। अखबार में जब खबर छपती है तो चाहे वह सिंगल कॉलम हो या आठ कॉलम बैनर हो, उसमें कोई चीज दोहराई नहीं जाती है। आपके पास जितनी सूचनाएं हैं या जो भी फोटो है, उसे आप एक बार इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन टेलीविजन में विजुअल (जो हो सकता है कि पांच सेकंड का हो), एक बाइट (जो हो सकता है दस शब्दों की हो) और एक सूचना (जो हो सकता है कि खबरों की कसौटी पर खरा नहीं उतरती हो) उस पर आधे घंटे का प्रोग्राम बनाया जा सकता है। एक विजुअल को इस दौरान 28 बार दिखाया जाएगा, एक बाइट 12 बार चलाई जाएगी और एक सूचना को हथौड़े की तरह 32 बार आपके सिर पर मारा जाएगा। 24 घंटे के टेलीविजन चैनल कुल मिला कर करीब छह घंटे के ओरिजिनल फुटेज पर सारे दिन चलते हैं। इसलिए अगर आपको सारे दिन कोई खबर टीवी पर चलती दिखे, तो इसका यह कतई मतलब नहीं निकालिएगा कि इसके लिए चैनल ने कई घंटों का वीडियो फुटेज जुटाया है। हो सकता है कि आधे घंटे के फुटेज पर सारे दिन का प्रोग्राम चलाया जाए।
\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0in 0in 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>इस लंबी भूमिका की जरूरत इसलिए है कि जब हम यह जानें कि सीलिंग के लिए किसी चैनल ने कितनी देर की फुटेज जुटाई और पुश्ते पर के विस्थापन की कितनी देर की ओरिजिनल फुटेज उनके पास है तो हमें वास्तविकता का आभास हो सके। मुझे लगता है कि किसी एक चैनल का आंकड़ा इस बात की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त होगा कि दोनों घटनाओं की कवरेज में कितना भेदभाव था। 2004 की शुरुआत में यमुना पुश्ते पर विस्थापन हुआ था। वह आम चुनाव का साल था और विस्थापन हमेशा एक राजनीतिक मुद्दा होता है। इसके बावजूद पुश्ते के विस्थापन को विस्थापित हो रहे लोगों के नजरिए से कवर नहीं किया गया। लेकिन यह अवांतर चर्चा का विषय है। अभी नंबर एक की होड़ में सबसे शिद्दत से शामिल चैनल स्टार न्यूज का उस समय महज छह-सात महीने पहले एनडीटीवी से अलगाव हुआ था और स्टार ने स्वतंत्र ऑपरेशन शुरू किया था। उसने पुश्ते के विस्थापन एक सामान्य घटना की तरह एक दिन के बुलेटिन में निपटा दिया। चैनल के भीतर से मिली अनधिकृत जानकारी के मुताबिक इस पूरे घटनाक्रम की करीब 20-22 मिनट की रॉ फुटेज चैनल के पास है। जाहिर है, इसमें ज्यादा हिस्सा नेताओं के पुश्ते पर आने-जाने का होगा। गौरतलब है कि एक खास लेकिन प्रचलित राजनीतिक नौटंकी की तर्ज पर शीला दीक्षित मौका मुआयना करने गई थीं और विस्थापन का सारा ठीकरा केंद्र सरकार के सर फोड़ कर आ गई थीं। इसके तुरंत बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी पुनर्वास के लिए निर्धारित जगह पर गईं और विस्थापितों से मिलीं। स्टार के 20-22 मिनट के रॉ फुटेज में ज्यादा हिस्सा इन्हीं राजनीतिक मेल-मुलाकातों का है। लेकिन दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हुई सीलिंग की करीब साढ़े चार घंटे की रॉ फुटेज चैनल के पास है और इन फुटेज के एयर टाइम का हिसाब लगाने के लिए बहुत मशक्कत की जरूर होगी, जो संभवतः चैनल वालों ने भी नहीं की है। \n\u003c/span\>\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0in 0in 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>पत्रकारिता में एक मशहूर उक्ति है कि एक तस्वीर एक हजार शब्द के बराबर बातें बयान करती हैं। इस लिहाज से लाइव वीडियो फुटेज तो सारी कहानी बयान कर सकती है। लेकिन सभी तस्वीरों और सभी वीडियो फुटेज के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि आजकल तस्वीरें और फुटेज जितना दिखाते हैं, उससे कहीं ज्यादा छिपाते हैं। सीलिंग और यमुना पुश्ते से विस्थापन दोनों की फुटेज के एक-एक उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है। सीलिंग के दौरान चैनल लगातार उन लोगों को दिखाता रहा, जिनकी दुकानें सील हो रही थीं। जिस व्यक्ति की दुकान सील हो रही थी, उसे और उसके परिवार को यह कहते हुए दिखाया गया कि अब इनका क्या होगा, इनकी आजीविका का साधन छीना जा रहा है। इसमें कुछ भी गलत नहीं था। जिनकी दुकानें सील हुईं, उनमें से ज्यादातर संपन्न लोग थे, लेकिन निश्चित रूप से कुछ निम्न आय वर्ग के लोग भी थे, जिनकी आजीविका का साधन छीना जा रहा था। चैनल ने ऐसे थोड़े से लोगों के बहाने एक व्यापक सहानुभूति का माहौल बनाया। यह नहीं बताया कि कानून का उल्लंघन करके बनाई गई इन दुकानों से क्या मुश्किल आ रही है। कभी भी रिहायशी इलाकों में चल रही दुकानों के कारण होने वाले ट्रैफिक जाम के बारे में नहीं बताया गया। यहां तक कि रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों की आपत्तियों को भी बहुत गंभीरता से नहीं दिखाया गया। इसके उलट यमुना पुश्ते पर हो रहे विस्थापन के दौरान मैली होकर बहती यमुना की फुटेज दिखाई गई और प्रकारांतर से यह बताया गया कि विस्थापन के बाद यमुना का प्रदूषण कम हो जाएगा। हकीकत यह है कि पुश्ते पर रहने वाले लोगों का यमुना का प्रदूषण में पांच फीसदी से भी कम योगदान है। वह तो दिल्ली की मध्यवर्गीय और समृद्ध लोगों की कॉलोनियों से निकलने वाले डेढ़ दर्जन बड़े नाले हैं, जो यमुना के प्रदूषण का मुख्य कारण हैं। प्रसारण में बरते गए इस भेदभाव से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्यों मार्च के अंतिम हफ्ते में शुरू हुई सीलिंग की प्रक्रिया सितंबर तक पहुंचते-पहुंचते बंद हो गई और यमुना पुश्ते से करीब डे़ढ़ लाख लोग बड़ी आसानी से विस्थापित होकर होलंबी कलां पहुंच गए। यहां भी लोगों की आजीविका छीनी, स्कूल जाने वाले बच्चों की पढ़ाई छूटी, दशकों से बना हुए आशियाना उजड़ा, पर वह तो चैनल का सरोकार नहीं है न। क्योंकि यह जिनके साथ हुआ वे चैनल चलाने वाले लोगों के वर्ग व वर्ण के नहीं हैं और उनकी खबर टीआरपी के यूनिवर्सल पैमाने पर भी कहीं नहीं टिकती है। \n",1]
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इस लंबी भूमिका की जरूरत इसलिए है कि जब हम यह जानें कि सीलिंग के लिए किसी चैनल ने कितनी देर की फुटेज जुटाई और पुश्ते पर के विस्थापन की कितनी देर की ओरिजिनल फुटेज उनके पास है तो हमें वास्तविकता का आभास हो सके। मुझे लगता है कि किसी एक चैनल का आंकड़ा इस बात की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त होगा कि दोनों घटनाओं की कवरेज में कितना भेदभाव था। 2004 की शुरुआत में यमुना पुश्ते पर विस्थापन हुआ था। वह आम चुनाव का साल था और विस्थापन हमेशा एक राजनीतिक मुद्दा होता है। इसके बावजूद पुश्ते के विस्थापन को विस्थापित हो रहे लोगों के नजरिए से कवर नहीं किया गया। लेकिन यह अवांतर चर्चा का विषय है। अभी नंबर एक की होड़ में सबसे शिद्दत से शामिल चैनल स्टार न्यूज का उस समय महज छह-सात महीने पहले एनडीटीवी से अलगाव हुआ था और स्टार ने स्वतंत्र ऑपरेशन शुरू किया था। उसने पुश्ते के विस्थापन एक सामान्य घटना की तरह एक दिन के बुलेटिन में निपटा दिया। चैनल के भीतर से मिली अनधिकृत जानकारी के मुताबिक इस पूरे घटनाक्रम की करीब 20-22 मिनट की रॉ फुटेज चैनल के पास है। जाहिर है, इसमें ज्यादा हिस्सा नेताओं के पुश्ते पर आने-जाने का होगा। गौरतलब है कि एक खास लेकिन प्रचलित राजनीतिक नौटंकी की तर्ज पर शीला दीक्षित मौका मुआयना करने गई थीं और विस्थापन का सारा ठीकरा केंद्र सरकार के सर फोड़ कर आ गई थीं। इसके तुरंत बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी पुनर्वास के लिए निर्धारित जगह पर गईं और विस्थापितों से मिलीं। स्टार के 20-22 मिनट के रॉ फुटेज में ज्यादा हिस्सा इन्हीं राजनीतिक मेल-मुलाकातों का है। लेकिन दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हुई सीलिंग की करीब साढ़े चार घंटे की रॉ फुटेज चैनल के पास है और इन फुटेज के एयर टाइम का हिसाब लगाने के लिए बहुत मशक्कत की जरूर होगी, जो संभवतः चैनल वालों ने भी नहीं की है।
पत्रकारिता में एक मशहूर उक्ति है कि एक तस्वीर एक हजार शब्द के बराबर बातें बयान करती हैं। इस लिहाज से लाइव वीडियो फुटेज तो सारी कहानी बयान कर सकती है। लेकिन सभी तस्वीरों और सभी वीडियो फुटेज के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि आजकल तस्वीरें और फुटेज जितना दिखाते हैं, उससे कहीं ज्यादा छिपाते हैं। सीलिंग और यमुना पुश्ते से विस्थापन दोनों की फुटेज के एक-एक उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है। सीलिंग के दौरान चैनल लगातार उन लोगों को दिखाता रहा, जिनकी दुकानें सील हो रही थीं। जिस व्यक्ति की दुकान सील हो रही थी, उसे और उसके परिवार को यह कहते हुए दिखाया गया कि अब इनका क्या होगा, इनकी आजीविका का साधन छीना जा रहा है। इसमें कुछ भी गलत नहीं था। जिनकी दुकानें सील हुईं, उनमें से ज्यादातर संपन्न लोग थे, लेकिन निश्चित रूप से कुछ निम्न आय वर्ग के लोग भी थे, जिनकी आजीविका का साधन छीना जा रहा था। चैनल ने ऐसे थोड़े से लोगों के बहाने एक व्यापक सहानुभूति का माहौल बनाया। यह नहीं बताया कि कानून का उल्लंघन करके बनाई गई इन दुकानों से क्या मुश्किल आ रही है। कभी भी रिहायशी इलाकों में चल रही दुकानों के कारण होने वाले ट्रैफिक जाम के बारे में नहीं बताया गया। यहां तक कि रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों की आपत्तियों को भी बहुत गंभीरता से नहीं दिखाया गया। इसके उलट यमुना पुश्ते पर हो रहे विस्थापन के दौरान मैली होकर बहती यमुना की फुटेज दिखाई गई और प्रकारांतर से यह बताया गया कि विस्थापन के बाद यमुना का प्रदूषण कम हो जाएगा। हकीकत यह है कि पुश्ते पर रहने वाले लोगों का यमुना का प्रदूषण में पांच फीसदी से भी कम योगदान है। वह तो दिल्ली की मध्यवर्गीय और समृद्ध लोगों की कॉलोनियों से निकलने वाले डेढ़ दर्जन बड़े नाले हैं, जो यमुना के प्रदूषण का मुख्य कारण हैं। प्रसारण में बरते गए इस भेदभाव से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्यों मार्च के अंतिम हफ्ते में शुरू हुई सीलिंग की प्रक्रिया सितंबर तक पहुंचते-पहुंचते बंद हो गई और यमुना पुश्ते से करीब डे़ढ़ लाख लोग बड़ी आसानी से विस्थापित होकर होलंबी कलां पहुंच गए। यहां भी लोगों की आजीविका छीनी, स्कूल जाने वाले बच्चों की पढ़ाई छूटी, दशकों से बना हुए आशियाना उजड़ा, पर वह तो चैनल का सरोकार नहीं है न। क्योंकि यह जिनके साथ हुआ वे चैनल चलाने वाले लोगों के वर्ग व वर्ण के नहीं हैं और उनकी खबर टीआरपी के यूनिवर्सल पैमाने पर भी कहीं नहीं टिकती है।
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