Wednesday, November 28, 2007

सीलिंग बनाम पुश्ते का विस्थापन

मीडिया का वर्ग भेद
चौथी किश्त
सीलिंग बनाम यमुना पुश्ते का विस्थापन
अजीत द्विवेदी
मीडिया मस्ती की खबरें करता है। मूड की खबरें करता है। भारत-आस्ट्रेलिया का मैच हो तो एक दिन पहले मेट्रो मूड से लेकर कस्बे तक के मूड की खबर ली जाती है। भारत हारे या जीते दोनों ही स्थितियों में मैच के अगले दिन रिएक्शन स्टोरी आती है। खबरिया चैनल तो हाथ के हाथ रिएक्शन स्टोरी भी दिखा देते हैं। पॉप, रॉक, भांगड़ा गायकों-नर्तकों की मस्ती की खबरें मीडिया का पहला सरोकार हैं। ऐसे में अगर कोई मूड बिगाड़ने वाली खबर आ जाए तो उसका क्या करें। जब ऐसी खबरें आती हैं तब उसके आकलन के दूसरे आधार तलाशे जाते हैं। मस्ती और मूड में एक किस्म की सार्वभौमिकता है। शकीरा और लोपेज से लेकर माधुरी दीक्षित और राखी सावंत तक सब एक स्केल से मापे जाते हैं। पर इनसे इतर जो खबरें होती हैं, उनके आकलन के पैमाने अलग-अलग होते हैं। दिल्ली में सीलिंग और यमुना पुश्ते पर विस्थापन ये दो ऐसे मुद्दे हैं, जो मेट्रो मूड की खबरों से अलग हैं। इसलिए जब ये दोनों खबरें ब्रेक हुईं तो सारे सार्वभौमिक पैमाने ध्वस्त हो गए। न तो मस्ती और मूड के पैमाने याद रहे और न चैनलों की जीवन रेखा बन चुका टीआरपी का पैमाना याद रहा। तब आकलन का आधार वर्ग और काफी हद तक वर्ण बना और इसलिए दोनों के प्रसारण-मुद्रण में एक बड़ा भेदभाव दिखा, जिसकी चर्चा पिछली तीन किस्तों से मैं कर रहा हूं।
जिस तरह से अखबार में खबरों का महत्व इस बात से तय होता है कि खबर कितने कॉलम की है, उसकी हेडिंग कितने प्वाइंट में है, किस पन्ने पर छपी है, उसी तरह से टेलीविजन में उसका महत्व इससे तय होता है कि रन डाउन में उसे किस नंबर पर रखा गया, कितनी बार उसे हेडलाइन में दिखाया गया है, उस पर कितनी देर का पैकेज बना या उस पर कोई आधे-एक घंटे का प्रोग्राम बना या नहीं। यहां एक फर्क समझना जरूरी है। अखबार में जब खबर छपती है तो चाहे वह सिंगल कॉलम हो या आठ कॉलम बैनर हो, उसमें कोई चीज दोहराई नहीं जाती है। आपके पास जितनी सूचनाएं हैं या जो भी फोटो है, उसे आप एक बार इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन टेलीविजन में विजुअल (जो हो सकता है कि पांच सेकंड का हो), एक बाइट (जो हो सकता है दस शब्दों की हो) और एक सूचना (जो हो सकता है कि खबरों की कसौटी पर खरा नहीं उतरती हो) उस पर आधे घंटे का प्रोग्राम बनाया जा सकता है। एक विजुअल को इस दौरान 28 बार दिखाया जाएगा, एक बाइट 12 बार चलाई जाएगी और एक सूचना को हथौड़े की तरह 32 बार आपके सिर पर मारा जाएगा। 24 घंटे के टेलीविजन चैनल कुल मिला कर करीब छह घंटे के ओरिजिनल फुटेज पर सारे दिन चलते हैं। इसलिए अगर आपको सारे दिन कोई खबर टीवी पर चलती दिखे, तो इसका यह कतई मतलब नहीं निकालिएगा कि इसके लिए चैनल ने कई घंटों का वीडियो फुटेज जुटाया है। हो सकता है कि आधे घंटे के फुटेज पर सारे दिन का प्रोग्राम चलाया जाए।
\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0in 0in 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>इस लंबी भूमिका की जरूरत इसलिए है कि जब हम यह जानें कि सीलिंग के लिए किसी चैनल ने कितनी देर की फुटेज जुटाई और पुश्ते पर के विस्थापन की कितनी देर की ओरिजिनल फुटेज उनके पास है तो हमें वास्तविकता का आभास हो सके। मुझे लगता है कि किसी एक चैनल का आंकड़ा इस बात की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त होगा कि दोनों घटनाओं की कवरेज में कितना भेदभाव था। 2004 की शुरुआत में यमुना पुश्ते पर विस्थापन हुआ था। वह आम चुनाव का साल था और विस्थापन हमेशा एक राजनीतिक मुद्दा होता है। इसके बावजूद पुश्ते के विस्थापन को विस्थापित हो रहे लोगों के नजरिए से कवर नहीं किया गया। लेकिन यह अवांतर चर्चा का विषय है। अभी नंबर एक की होड़ में सबसे शिद्दत से शामिल चैनल स्टार न्यूज का उस समय महज छह-सात महीने पहले एनडीटीवी से अलगाव हुआ था और स्टार ने स्वतंत्र ऑपरेशन शुरू किया था। उसने पुश्ते के विस्थापन एक सामान्य घटना की तरह एक दिन के बुलेटिन में निपटा दिया। चैनल के भीतर से मिली अनधिकृत जानकारी के मुताबिक इस पूरे घटनाक्रम की करीब 20-22 मिनट की रॉ फुटेज चैनल के पास है। जाहिर है, इसमें ज्यादा हिस्सा नेताओं के पुश्ते पर आने-जाने का होगा। गौरतलब है कि एक खास लेकिन प्रचलित राजनीतिक नौटंकी की तर्ज पर शीला दीक्षित मौका मुआयना करने गई थीं और विस्थापन का सारा ठीकरा केंद्र सरकार के सर फोड़ कर आ गई थीं। इसके तुरंत बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी पुनर्वास के लिए निर्धारित जगह पर गईं और विस्थापितों से मिलीं। स्टार के 20-22 मिनट के रॉ फुटेज में ज्यादा हिस्सा इन्हीं राजनीतिक मेल-मुलाकातों का है। लेकिन दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हुई सीलिंग की करीब साढ़े चार घंटे की रॉ फुटेज चैनल के पास है और इन फुटेज के एयर टाइम का हिसाब लगाने के लिए बहुत मशक्कत की जरूर होगी, जो संभवतः चैनल वालों ने भी नहीं की है। \n\u003c/span\>\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0in 0in 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>पत्रकारिता में एक मशहूर उक्ति है कि एक तस्वीर एक हजार शब्द के बराबर बातें बयान करती हैं। इस लिहाज से लाइव वीडियो फुटेज तो सारी कहानी बयान कर सकती है। लेकिन सभी तस्वीरों और सभी वीडियो फुटेज के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि आजकल तस्वीरें और फुटेज जितना दिखाते हैं, उससे कहीं ज्यादा छिपाते हैं। सीलिंग और यमुना पुश्ते से विस्थापन दोनों की फुटेज के एक-एक उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है। सीलिंग के दौरान चैनल लगातार उन लोगों को दिखाता रहा, जिनकी दुकानें सील हो रही थीं। जिस व्यक्ति की दुकान सील हो रही थी, उसे और उसके परिवार को यह कहते हुए दिखाया गया कि अब इनका क्या होगा, इनकी आजीविका का साधन छीना जा रहा है। इसमें कुछ भी गलत नहीं था। जिनकी दुकानें सील हुईं, उनमें से ज्यादातर संपन्न लोग थे, लेकिन निश्चित रूप से कुछ निम्न आय वर्ग के लोग भी थे, जिनकी आजीविका का साधन छीना जा रहा था। चैनल ने ऐसे थोड़े से लोगों के बहाने एक व्यापक सहानुभूति का माहौल बनाया। यह नहीं बताया कि कानून का उल्लंघन करके बनाई गई इन दुकानों से क्या मुश्किल आ रही है। कभी भी रिहायशी इलाकों में चल रही दुकानों के कारण होने वाले ट्रैफिक जाम के बारे में नहीं बताया गया। यहां तक कि रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों की आपत्तियों को भी बहुत गंभीरता से नहीं दिखाया गया। इसके उलट यमुना पुश्ते पर हो रहे विस्थापन के दौरान मैली होकर बहती यमुना की फुटेज दिखाई गई और प्रकारांतर से यह बताया गया कि विस्थापन के बाद यमुना का प्रदूषण कम हो जाएगा। हकीकत यह है कि पुश्ते पर रहने वाले लोगों का यमुना का प्रदूषण में पांच फीसदी से भी कम योगदान है। वह तो दिल्ली की मध्यवर्गीय और समृद्ध लोगों की कॉलोनियों से निकलने वाले डेढ़ दर्जन बड़े नाले हैं, जो यमुना के प्रदूषण का मुख्य कारण हैं। प्रसारण में बरते गए इस भेदभाव से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्यों मार्च के अंतिम हफ्ते में शुरू हुई सीलिंग की प्रक्रिया सितंबर तक पहुंचते-पहुंचते बंद हो गई और यमुना पुश्ते से करीब डे़ढ़ लाख लोग बड़ी आसानी से विस्थापित होकर होलंबी कलां पहुंच गए। यहां भी लोगों की आजीविका छीनी, स्कूल जाने वाले बच्चों की पढ़ाई छूटी, दशकों से बना हुए आशियाना उजड़ा, पर वह तो चैनल का सरोकार नहीं है न। क्योंकि यह जिनके साथ हुआ वे चैनल चलाने वाले लोगों के वर्ग व वर्ण के नहीं हैं और उनकी खबर टीआरपी के यूनिवर्सल पैमाने पर भी कहीं नहीं टिकती है। \n",1]
);
//-->

इस लंबी भूमिका की जरूरत इसलिए है कि जब हम यह जानें कि सीलिंग के लिए किसी चैनल ने कितनी देर की फुटेज जुटाई और पुश्ते पर के विस्थापन की कितनी देर की ओरिजिनल फुटेज उनके पास है तो हमें वास्तविकता का आभास हो सके। मुझे लगता है कि किसी एक चैनल का आंकड़ा इस बात की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त होगा कि दोनों घटनाओं की कवरेज में कितना भेदभाव था। 2004 की शुरुआत में यमुना पुश्ते पर विस्थापन हुआ था। वह आम चुनाव का साल था और विस्थापन हमेशा एक राजनीतिक मुद्दा होता है। इसके बावजूद पुश्ते के विस्थापन को विस्थापित हो रहे लोगों के नजरिए से कवर नहीं किया गया। लेकिन यह अवांतर चर्चा का विषय है। अभी नंबर एक की होड़ में सबसे शिद्दत से शामिल चैनल स्टार न्यूज का उस समय महज छह-सात महीने पहले एनडीटीवी से अलगाव हुआ था और स्टार ने स्वतंत्र ऑपरेशन शुरू किया था। उसने पुश्ते के विस्थापन एक सामान्य घटना की तरह एक दिन के बुलेटिन में निपटा दिया। चैनल के भीतर से मिली अनधिकृत जानकारी के मुताबिक इस पूरे घटनाक्रम की करीब 20-22 मिनट की रॉ फुटेज चैनल के पास है। जाहिर है, इसमें ज्यादा हिस्सा नेताओं के पुश्ते पर आने-जाने का होगा। गौरतलब है कि एक खास लेकिन प्रचलित राजनीतिक नौटंकी की तर्ज पर शीला दीक्षित मौका मुआयना करने गई थीं और विस्थापन का सारा ठीकरा केंद्र सरकार के सर फोड़ कर आ गई थीं। इसके तुरंत बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी पुनर्वास के लिए निर्धारित जगह पर गईं और विस्थापितों से मिलीं। स्टार के 20-22 मिनट के रॉ फुटेज में ज्यादा हिस्सा इन्हीं राजनीतिक मेल-मुलाकातों का है। लेकिन दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हुई सीलिंग की करीब साढ़े चार घंटे की रॉ फुटेज चैनल के पास है और इन फुटेज के एयर टाइम का हिसाब लगाने के लिए बहुत मशक्कत की जरूर होगी, जो संभवतः चैनल वालों ने भी नहीं की है।
पत्रकारिता में एक मशहूर उक्ति है कि एक तस्वीर एक हजार शब्द के बराबर बातें बयान करती हैं। इस लिहाज से लाइव वीडियो फुटेज तो सारी कहानी बयान कर सकती है। लेकिन सभी तस्वीरों और सभी वीडियो फुटेज के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि आजकल तस्वीरें और फुटेज जितना दिखाते हैं, उससे कहीं ज्यादा छिपाते हैं। सीलिंग और यमुना पुश्ते से विस्थापन दोनों की फुटेज के एक-एक उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है। सीलिंग के दौरान चैनल लगातार उन लोगों को दिखाता रहा, जिनकी दुकानें सील हो रही थीं। जिस व्यक्ति की दुकान सील हो रही थी, उसे और उसके परिवार को यह कहते हुए दिखाया गया कि अब इनका क्या होगा, इनकी आजीविका का साधन छीना जा रहा है। इसमें कुछ भी गलत नहीं था। जिनकी दुकानें सील हुईं, उनमें से ज्यादातर संपन्न लोग थे, लेकिन निश्चित रूप से कुछ निम्न आय वर्ग के लोग भी थे, जिनकी आजीविका का साधन छीना जा रहा था। चैनल ने ऐसे थोड़े से लोगों के बहाने एक व्यापक सहानुभूति का माहौल बनाया। यह नहीं बताया कि कानून का उल्लंघन करके बनाई गई इन दुकानों से क्या मुश्किल आ रही है। कभी भी रिहायशी इलाकों में चल रही दुकानों के कारण होने वाले ट्रैफिक जाम के बारे में नहीं बताया गया। यहां तक कि रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों की आपत्तियों को भी बहुत गंभीरता से नहीं दिखाया गया। इसके उलट यमुना पुश्ते पर हो रहे विस्थापन के दौरान मैली होकर बहती यमुना की फुटेज दिखाई गई और प्रकारांतर से यह बताया गया कि विस्थापन के बाद यमुना का प्रदूषण कम हो जाएगा। हकीकत यह है कि पुश्ते पर रहने वाले लोगों का यमुना का प्रदूषण में पांच फीसदी से भी कम योगदान है। वह तो दिल्ली की मध्यवर्गीय और समृद्ध लोगों की कॉलोनियों से निकलने वाले डेढ़ दर्जन बड़े नाले हैं, जो यमुना के प्रदूषण का मुख्य कारण हैं। प्रसारण में बरते गए इस भेदभाव से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्यों मार्च के अंतिम हफ्ते में शुरू हुई सीलिंग की प्रक्रिया सितंबर तक पहुंचते-पहुंचते बंद हो गई और यमुना पुश्ते से करीब डे़ढ़ लाख लोग बड़ी आसानी से विस्थापित होकर होलंबी कलां पहुंच गए। यहां भी लोगों की आजीविका छीनी, स्कूल जाने वाले बच्चों की पढ़ाई छूटी, दशकों से बना हुए आशियाना उजड़ा, पर वह तो चैनल का सरोकार नहीं है न। क्योंकि यह जिनके साथ हुआ वे चैनल चलाने वाले लोगों के वर्ग व वर्ण के नहीं हैं और उनकी खबर टीआरपी के यूनिवर्सल पैमाने पर भी कहीं नहीं टिकती है।
\u003c/p\>\n",0]
);
D(["ce"]);
//-->

No comments: