दिल्ली में सीलिंग बनाम पुश्ते पर से विस्थापन के मीडिया कवरेज की तीसरी किस्त
अपनी पिछली किस्त में मैंने सीलिंग के कारणों, उससे प्रभावित होने वाले लोगों के आंदोलन, उसके असर (खासकर दिल्ली नगर निगम चुनावों के संदर्भ में) आदि की चर्चा की थी। उसके अपने राजनीतिक और सामाजिक आयाम थे। इस बार यमुना पुश्ते पर से झुग्गियों के उजाड़े जाने, उससे प्रभावित होने वाले लोगों और कथित रूप से दिल्ली व यमुना के सौंदर्यीकरण अभियान पर हम चर्चा करेंगे।
विस्थापन हमेशा से राजनीतिक मुद्दा रहा है। यमुना पुश्ते का विस्थापन इसका अपवाद नहीं है। इसे लेकर भी काफी अरसा राजनीति हो रही। खास कर केंद्र में एनडीए सरकार के कामकाज के पांच सालों तक क्योंकि जब केंद्र में भाजपानीत एनडीए की सरकार थी, उस समय दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। ऊपर से यमुना पुश्ते पर बसी करीब साढ़े तीन लाख लोगों की आबादी में करीब 70 फीसदी मुसलमान थे, जो बुनियादी रूप से बिहार, उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे और पारंपरिक रूप से कांग्रेस के वोटर थे। इसलिए जब पर्यटन और संस्कृति मंत्री जगमोहन ने यमुना के सौंदर्यीकरण के नाम पर विस्थापन की योजना को कार्यरूप देना शुरू किया तो कांग्रेस नेताओं ने इसका विरोध किया।
पुश्ते पर विस्थापन की प्रक्रिया काफी पहले से जारी थी और जब फरवरी 2003 में महाअभियान शुरू हुआ उस समय तक करीब एक लाख लोग यहां से जा चुके थे। फरवरी 2003 में विस्थापन की महामुहिम शुरू हुई। लेकिन जल्दी ही छह झुग्गी वालों की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पांच फरवरी 2003 को विस्थापन की मुहिम पर रोक लगा दी थी। लेकिन मार्च 2003 की शुरुआत में दिल्ली हाईकोर्ट की दो जजों चीफ जस्टिस बीसी पटेल और बीडी अहमद की खंडपीठ ने इस रोक को हटा दिया। हाईकोर्ट के इस फैसले से पहले चुनाव आयोग ने भी अपने पुराने आदेश में संशोधन करते हुए यमुना पुश्ते से विस्थापन को मंजूरी दे दी। गौरतलब है कि 2003 की मई में होने वाले लोकसभा चुनाव की वजह से पहले चुनाव आयोग ने विस्थापन की गतिविधियां रोकने का आदेश दिया था। आश्चर्य की बात यह है कि दिल्ली नगर निगम ने चुनाव आयोग से यमुना पुश्ते के अलावा आरके पुरम की धापा झुग्गी, माता सुंदरी मार्ग की तीन झुग्गि बस्तियों और कबीर बस्ती को भी खाली कराने की अनुमति मांगी थी, लेकिन आयोग ने सिर्फ यमुना पुश्ते से विस्थापन को मंजूरी दी और बाकी तीन झुग्गी बस्तियों से किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करने का निर्देश दिया। आयोग का यह फैसला निःसंदेह अतार्किक था।
\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>बहरहाल दिल्ली हाईकोर्ट और चुनाव आयोग की मंजूरी मिलने के बाद नगर निगम ने दिल्ली पुलिस की मदद मांगी और यमुना पुश्ते से विस्थापन शुरू हो गया। करीब दो दशक से बसे हुए लोगों को वहां से उजाड़ दिया गया, बगैर पुनर्वास की पुख्ता व्यवस्था किए। मकसद था यमुना को लंदन की टेम्स नदी की तरह विकसित करना और इसके दोनों किनारों पर खूबसूरत मॉल बनाना। जब झुग्गियों का उजड़ना शुरू हुआ तो जम के राजनीति हुई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपने मंत्रियों-विधायकों के साथ इसका विरोध करने पहुंची तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी विस्थापितों के लिए बनाई गई पुनर्वास कॉलोनी होलंबी कलां पहुंच गईं। नतीजा यह हुआ कि मई 2003 के चुनाव में पुनर्वास बस्तियों के लोगों ने भारी संख्या में मतदान में हिस्सा लेकर उन्हें उजाड़ने वाले मंत्री जगमोहन को हरा दिया। उनके हारने के साथ ही यमुना के टेम्स नदी बनाने का फामूर्ला भी दफन हो गया। लेकिन केंद्र में कांग्रेस की जीत भी उजाड़े गए लोगों की पीड़ा को कम नहीं कर सकी। इस चुनाव के बाद करीब तीन साल कर केंद्र, राज्य और दिल्ली नगर निगम तीनों पर कांग्रेस का कब्जा रहा, लेकिन पुनर्वास बस्तियों का कल्याण नहीं हुआ। \n\u003c/span\>\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>जो उजाड़े गए उनके पास अपना सामान पुनर्वास बस्तियों तक ले जाने का साधन नहीं था। मार्च महीने में बोर्ड की परीक्षाएं चल रही थीं लेकिन इन बस्तियों के छात्र अपने टूटते-बिखरते आशियाने को अपने माता-पिता के साथ सहेजने में लगे थे। विस्थापन की इस महामुहिम में सिर्फ घर नहीं उजड़े थे, हजारों लोगों की आजीविका छीन गई थी, जो सालों से वहां छोटी-मोटी दुकाने लगा कर कारोबार करते थे और अपने परिवार का पेट पालते थे। शहर से करीब 30 किलोमीटर दूर बसी पुनर्वास कॉलोनियों में जाने के बाद किसी के लिए दिल्ली में आकर काम करना संभव नहीं था। इस वजह से हजारों लोग दशकों की मेहनत-मशक्कत के बाद खाली हाथ घर लौटने को मजबूर हुए। जो थोड़े से लोग पुनर्वास बस्तियों में गए उनके लिए राह और कठिन थी। एक तरफ तो लोग यह प्रमाणित करने में लगे थे कि वे 1990 या उससे भी पहले से इन कॉलोनियों में रहते हैं तो दूसरी ओर ऐसी लूट मची थी कि पुलिस की मिलीभगत से ढेर सारे फर्जी लोगों को पुश्ते पर की बस्तियों में बसे होने का प्रमाणपत्र दिया जा रहा था और पुनर्वास कॉलोनियों में जमीन आवंटित की जा रही थी। इसमें बिल्डर माफिया के लोग भी शामिल थे।\n",1]
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बहरहाल दिल्ली हाईकोर्ट और चुनाव आयोग की मंजूरी मिलने के बाद नगर निगम ने दिल्ली पुलिस की मदद मांगी और यमुना पुश्ते से विस्थापन शुरू हो गया। करीब दो दशक से बसे हुए लोगों को वहां से उजाड़ दिया गया, बगैर पुनर्वास की पुख्ता व्यवस्था किए। मकसद था यमुना को लंदन की टेम्स नदी की तरह विकसित करना और इसके दोनों किनारों पर खूबसूरत मॉल बनाना। जब झुग्गियों का उजड़ना शुरू हुआ तो जम के राजनीति हुई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपने मंत्रियों-विधायकों के साथ इसका विरोध करने पहुंची तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी विस्थापितों के लिए बनाई गई पुनर्वास कॉलोनी होलंबी कलां पहुंच गईं। नतीजा यह हुआ कि मई 2003 के चुनाव में पुनर्वास बस्तियों के लोगों ने भारी संख्या में मतदान में हिस्सा लेकर उन्हें उजाड़ने वाले मंत्री जगमोहन को हरा दिया। उनके हारने के साथ ही यमुना के टेम्स नदी बनाने का फामूर्ला भी दफन हो गया। लेकिन केंद्र में कांग्रेस की जीत भी उजाड़े गए लोगों की पीड़ा को कम नहीं कर सकी। इस चुनाव के बाद करीब तीन साल कर केंद्र, राज्य और दिल्ली नगर निगम तीनों पर कांग्रेस का कब्जा रहा, लेकिन पुनर्वास बस्तियों का कल्याण नहीं हुआ।
जो उजाड़े गए उनके पास अपना सामान पुनर्वास बस्तियों तक ले जाने का साधन नहीं था। मार्च महीने में बोर्ड की परीक्षाएं चल रही थीं लेकिन इन बस्तियों के छात्र अपने टूटते-बिखरते आशियाने को अपने माता-पिता के साथ सहेजने में लगे थे। विस्थापन की इस महामुहिम में सिर्फ घर नहीं उजड़े थे, हजारों लोगों की आजीविका छीन गई थी, जो सालों से वहां छोटी-मोटी दुकाने लगा कर कारोबार करते थे और अपने परिवार का पेट पालते थे। शहर से करीब 30 किलोमीटर दूर बसी पुनर्वास कॉलोनियों में जाने के बाद किसी के लिए दिल्ली में आकर काम करना संभव नहीं था। इस वजह से हजारों लोग दशकों की मेहनत-मशक्कत के बाद खाली हाथ घर लौटने को मजबूर हुए। जो थोड़े से लोग पुनर्वास बस्तियों में गए उनके लिए राह और कठिन थी। एक तरफ तो लोग यह प्रमाणित करने में लगे थे कि वे 1990 या उससे भी पहले से इन कॉलोनियों में रहते हैं तो दूसरी ओर ऐसी लूट मची थी कि पुलिस की मिलीभगत से ढेर सारे फर्जी लोगों को पुश्ते पर की बस्तियों में बसे होने का प्रमाणपत्र दिया जा रहा था और पुनर्वास कॉलोनियों में जमीन आवंटित की जा रही थी। इसमें बिल्डर माफिया के लोग भी शामिल थे।
\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>जो लोग पुनर्वास बस्तियों में गए, उनके सामने दिल्ली सरकार का एक कानून बाधा बन कर खड़ा था। दिल्ली सरकार का एक कानून है, जिसके मुताबिक जो लोग 1990 से पहले दिल्ली में आकर बसे हैं, उन्हें सात हजार तक रुपए दिए जाएंगे और होलंबी कला या भलस्वां में 18 वर्ग गज जमीन दी जाएगी। जो लोग 1990 से 98 के बीच दिल्ली में आकर बसे हैं, उन्हें \n12.5 वर्ग गज का प्लाट दिया जाएगा। लेकिन ये प्लाट मुफ्त में नहीं मिलने वाले थे। दिल्ली सरकार ने 18 वर्ग गज के प्लाट की कीमत 30 हजार रुपए रखी थी। मुआवजे के रूप में मिले सात हजार रुपए से 30 हजार की जमीन खरीदना सबके वश की बात नहीं थी। ऊपर से अधिकारियों की मिलीभगत के कारण बिल्डर माफिया उजड़ रहे लोगों को हतोत्साहित भी कर रहा था और उन्हें जमीन बेच देने के लिए प्रेरित कर रहा था। कुछ नगर निगम की खामी, कुछ पैसे की कमी और कुछ बिल्डर माफिया व पुलिस व निगम कर्मचारियों की मिलीभगत का नतीजा यह हुआ कि यमुना पुश्ते से विस्थापित होने वाले महज 16 फीसदी लोगों को ही पुनर्वास कॉलोनियों में प्लाट मिल सका। सरकार के इस अभियान ने आपातकाल की याद दिला दी। उस समय दिल्ली में करीब सात लाख लोग विस्थापित हुए थे। जबकि 2003 और इससे पहले के तीन सालों में दिल्ली में करीब आठ लाख लोग विस्थापित हुए। विस्थापन के इन दोनों अभियानों में करीब 30 साल का अंतराल था लेकिन उजड़ने वाले गरीब और पिछड़े लोगों के अलावा इसमें एनडीए सरकार के केंद्रीय मंत्री जगमोहन का नाम कॉमन था। \n\u003c/span\>\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>इस विस्थापन की कई वजहें बताई गईं थी, जिनमें एक वजह यह भी थी कि यमुना किनारे बसी ये झुग्गियां यमुना को प्रदूषित कर रही हैं। शहरी समस्याओं पर अध्ययन करने वाली एक संस्था हैजार्ड सेंटर ने एक अध्ययन के आधार पर बताया कि यमुना गिरने वाले 3296 एमएलडी प्रदूषित जल में से पुश्ते की बस्तियों का हिस्सा महज \n2.96 एमएलडी है। बाकी सारा प्रदूषित जल और गंदगी पक्की और कथित रूप से नियोजित बस्तियों से आती है। यमुना के तल को नुकसान पहुंचाने की दुहाई देकर बस्तियां उजाड़ने वाले लोगों ने ही यमुना किनारे विशाल अक्षरधाम मंदिर बनाने की मंजूरी दी थी। इस भेदभाव का कोई तर्क क्या लालकृष्ण आडवाणी या जगमोहन के पास है। झुग्गियों के लोगों के पुनर्वास की योजनाओं के प्रति दिल्ली विकास प्राधिकरण कितना गंभीर था, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगता है कि उसने ऐसी बस्तियों में रहने वालों के लिए \n",1]
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जो लोग पुनर्वास बस्तियों में गए, उनके सामने दिल्ली सरकार का एक कानून बाधा बन कर खड़ा था। दिल्ली सरकार का एक कानून है, जिसके मुताबिक जो लोग 1990 से पहले दिल्ली में आकर बसे हैं, उन्हें सात हजार तक रुपए दिए जाएंगे और होलंबी कला या भलस्वां में 18 वर्ग गज जमीन दी जाएगी। जो लोग 1990 से 98 के बीच दिल्ली में आकर बसे हैं, उन्हें 12.5 वर्ग गज का प्लाट दिया जाएगा। लेकिन ये प्लाट मुफ्त में नहीं मिलने वाले थे। दिल्ली सरकार ने 18 वर्ग गज के प्लाट की कीमत 30 हजार रुपए रखी थी। मुआवजे के रूप में मिले सात हजार रुपए से 30 हजार की जमीन खरीदना सबके वश की बात नहीं थी। ऊपर से अधिकारियों की मिलीभगत के कारण बिल्डर माफिया उजड़ रहे लोगों को हतोत्साहित भी कर रहा था और उन्हें जमीन बेच देने के लिए प्रेरित कर रहा था। कुछ नगर निगम की खामी, कुछ पैसे की कमी और कुछ बिल्डर माफिया व पुलिस व निगम कर्मचारियों की मिलीभगत का नतीजा यह हुआ कि यमुना पुश्ते से विस्थापित होने वाले महज 16 फीसदी लोगों को ही पुनर्वास कॉलोनियों में प्लाट मिल सका। सरकार के इस अभियान ने आपातकाल की याद दिला दी। उस समय दिल्ली में करीब सात लाख लोग विस्थापित हुए थे। जबकि 2003 और इससे पहले के तीन सालों में दिल्ली में करीब आठ लाख लोग विस्थापित हुए। विस्थापन के इन दोनों अभियानों में करीब 30 साल का अंतराल था लेकिन उजड़ने वाले गरीब और पिछड़े लोगों के अलावा इसमें एनडीए सरकार के केंद्रीय मंत्री जगमोहन का नाम कॉमन था।
इस विस्थापन की कई वजहें बताई गईं थी, जिनमें एक वजह यह भी थी कि यमुना किनारे बसी ये झुग्गियां यमुना को प्रदूषित कर रही हैं। शहरी समस्याओं पर अध्ययन करने वाली एक संस्था हैजार्ड सेंटर ने एक अध्ययन के आधार पर बताया कि यमुना गिरने वाले 3296 एमएलडी प्रदूषित जल में से पुश्ते की बस्तियों का हिस्सा महज 2.96 एमएलडी है। बाकी सारा प्रदूषित जल और गंदगी पक्की और कथित रूप से नियोजित बस्तियों से आती है। यमुना के तल को नुकसान पहुंचाने की दुहाई देकर बस्तियां उजाड़ने वाले लोगों ने ही यमुना किनारे विशाल अक्षरधाम मंदिर बनाने की मंजूरी दी थी। इस भेदभाव का कोई तर्क क्या लालकृष्ण आडवाणी या जगमोहन के पास है। झुग्गियों के लोगों के पुनर्वास की योजनाओं के प्रति दिल्ली विकास प्राधिकरण कितना गंभीर था, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगता है कि उसने ऐसी बस्तियों में रहने वालों के लिए
\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>अब है लाख टके का सवाल कि जब ये लोग उजाड़े जा रहे थे तब जनता की आवाज उठाने वाले अखबार और 24 घंटे चलने वाले समाचार चैनल क्या कर रहे थे। न्यूज चैनल खबरों का चयन टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) के आधार पर करते हैं। टीआरपी शहरों और टीआरपी घरों पर खास ध्यान रखा जाता है। चूंकि झुग्गी उजड़ने की खबरें टीआरपी नहीं देती हैं, (हां, अगर झुग्गियों में बलात्कार या हत्या की खबर हो, वहां भूत-प्रेत हों, कोई पुनर्जन्म की कहानी हो या नाग-नागिन का बदलानुमा सनसनीखेज कहानी बन रही हो तो उसे दिखाया जा सकता है क्योंकि ऐसी खबरों में झुग्गी गौण हो जाती है और सनसनी मुख्य तत्व हो जाती है) इसलिए झुग्गियों की खबरें नहीं दिखाई गईं। अखबारों के खास कर अंग्रेजी अखबारों और उनके पाठकों के सरोकार झुग्गियों से नहीं जुड़ते हैं, बल्कि उन्हें भी लगता है कि ये झुग्गियां शहर के माथे पर बदनुमा दाग हैं और इन्हें जितनी जल्दी हटाया जाए, उतना अच्छा है। इसलिए वहां खबर तो रही, लेकिन इस अभियान का स्वागत करती हुई। जहां तक हिंदी के अखबारों का सवाल है तो वे अंग्रेजी अखबारों की अंधी नकल में व्यस्त हैं और महंगे विज्ञापन हासिल करने के लिए मध्यवर्ग को लुभाने में लगे हैं, यह अलग बात है कि उनका सारा प्रसार नए साक्षर और पिछडे वर्गों की वजह से बढ़ रहा है। मध्यवर्ग को लुभाने की अपनी इस कोशिश में उन्होंने भी या तो इस खबर की अनदेखी की या जैसे-तैसे छाप कर अपने कर्तव्य की इतिश्री की। \n\u003c/span\>\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>एक अंग्रेजी अखबार ने इस अभियान को रिकंस्ट्रक्टिंग यमुना का नाम दिया, जिसने दिल्ली में सीलिंग को डिकंस्ट्रक्टिंग दिल्ली का नाम दिया था। \n\u003c/span\>\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan lang\u003d\"HI\" style\u003d\"font-family:Mangal\"\>अगली किस्त में मीडिया की नजर में दिल्ली का रिकंस्ट्रक्शन बनाम दिल्ली का डिकंस्ट्रक्शन पर चर्चा करेंगे। उसी में यमुना पुश्ते के विस्थापन को कवर करने में मीडिया का वर्ग, वर्ण और नस्ल भेद भी सामने आएगा। \n",1]
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16.2 लाख घर बनाने की घोषणा की थी, लेकिन उसने कुल घर बनाए 5.96 लाख और इनमें से कोई भी घर ऐसा नहीं था, जो झुग्गियों के लोग अफोर्ड कर सकें।
अब है लाख टके का सवाल कि जब ये लोग उजाड़े जा रहे थे तब जनता की आवाज उठाने वाले अखबार और 24 घंटे चलने वाले समाचार चैनल क्या कर रहे थे। न्यूज चैनल खबरों का चयन टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) के आधार पर करते हैं। टीआरपी शहरों और टीआरपी घरों पर खास ध्यान रखा जाता है। चूंकि झुग्गी उजड़ने की खबरें टीआरपी नहीं देती हैं, (हां, अगर झुग्गियों में बलात्कार या हत्या की खबर हो, वहां भूत-प्रेत हों, कोई पुनर्जन्म की कहानी हो या नाग-नागिन का बदलानुमा सनसनीखेज कहानी बन रही हो तो उसे दिखाया जा सकता है क्योंकि ऐसी खबरों में झुग्गी गौण हो जाती है और सनसनी मुख्य तत्व हो जाती है) इसलिए झुग्गियों की खबरें नहीं दिखाई गईं। अखबारों के खास कर अंग्रेजी अखबारों और उनके पाठकों के सरोकार झुग्गियों से नहीं जुड़ते हैं, बल्कि उन्हें भी लगता है कि ये झुग्गियां शहर के माथे पर बदनुमा दाग हैं और इन्हें जितनी जल्दी हटाया जाए, उतना अच्छा है। इसलिए वहां खबर तो रही, लेकिन इस अभियान का स्वागत करती हुई। जहां तक हिंदी के अखबारों का सवाल है तो वे अंग्रेजी अखबारों की अंधी नकल में व्यस्त हैं और महंगे विज्ञापन हासिल करने के लिए मध्यवर्ग को लुभाने में लगे हैं, यह अलग बात है कि उनका सारा प्रसार नए साक्षर और पिछडे वर्गों की वजह से बढ़ रहा है। मध्यवर्ग को लुभाने की अपनी इस कोशिश में उन्होंने भी या तो इस खबर की अनदेखी की या जैसे-तैसे छाप कर अपने कर्तव्य की इतिश्री की।
एक अंग्रेजी अखबार ने इस अभियान को रिकंस्ट्रक्टिंग यमुना का नाम दिया, जिसने दिल्ली में सीलिंग को डिकंस्ट्रक्टिंग दिल्ली का नाम दिया था।
अगली किस्त में मीडिया की नजर में दिल्ली का रिकंस्ट्रक्शन बनाम दिल्ली का डिकंस्ट्रक्शन पर चर्चा करेंगे। उसी में यमुना पुश्ते के विस्थापन को कवर करने में मीडिया का वर्ग, वर्ण और नस्ल भेद भी सामने आएगा।
\u003cspan\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan\>\u003cfont face\u003d\"Times New Roman\"\> \u003c/font\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n\u003cp style\u003d\"margin:0cm 0cm 0pt;text-align:justify\"\>\u003cspan\>\u003cfont face\u003d\"Times New Roman\"\> \u003c/font\>\u003c/span\>\u003c/p\>\n",0]
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