Wednesday, November 28, 2007

मीडिया एनजीओ या आंदोलन का नाम नहीं है

मीडिया एनजीओ या आंदोलन का नाम नहीं है
अजीत अंजुम
मीडिया की बदलती भूमिका को लेकर अरसे से बहस चल रही है। इसका दायरा बढ़ रहा है। इसके नए स्वरूप उभर रहे हैं। परचे के रूप में शुरू हुई पत्रकारिता साइबर युग में पहुंच गई है। एक करोड़ से अधिक पाठक वाले अखबारों की संख्या कम से कम चार तो हो ही गई है। खबरिया चैनलों के दर्शकों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। विस्तार की इस प्रक्रिया के समानांतर बदलाव की भी एक प्रक्रिया चल रही है। यह बदलाव सरोकारों का है। हालांकि एकाध अखबार अब भी अपनी टैग लाइन – अखबार नहीं आंदोलन- लिखते हैं। पर चाहे अखबार हों या न्यूज चैनल, हकीकत यह है कि मीडिया आंदोलन नहीं है। इसे स्वीकार करने वालों की संख्या कम है, पर इससे हकीकत नहीं बदलती। यमुना पुश्ते पर विस्थापन बनाम दिल्ली में सीलिंग की मीडिया कवरेज पर काम करते हुए ज्यादा करीब से इस सचाई से रूबरू हुआ। अध्ययन के नतीजे न सिर्फ इस बात की पुष्टि करते हैं कि कवरेज में उतना ही अंतर रहा, जितना जमीन और आसमान के बीच है, बल्कि इसकी भी पुष्टि करते हैं कि सीलिंग से नाराजगी का भाव खबर देने वाले चैनलों और अखबारों के पत्रकारों के मन में भी था और इसलिए इससे प्रभावितों के प्रति एक किस्म की सहानुभूति स्पष्ट रूप से दिखती है। ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिरकार कम से कम दो चैनल तो सीलिंग की कार्रवाई का शिकार हुए ही। लेकिन इसे खुल कर कोई स्वीकार नहीं करता। पर इसमें भी किसका दोष है, क्या हिप्पोक्रेसी हमारे सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा नहीं है? बहरहाल इस विषय पर अपने अध्ययन से हासिल कुछ तथ्यों और अपने परसेप्शन के साथ मैं हिप्पोक्रेट्स व मीडियोकॉर, छद्म बौद्धिक पत्रकारों की जमात से कुछ अलग बेलाग बात करने वाले और इलेक्ट्रानिक मीडिया के मौजूदा स्वरूप की खुली वकालत करने वाले वरिष्ठ पत्रकार और बीएजी फिल्म्स के प्रस्तावित न्यूज चैनल न्यूज 24 के मैनेजिंग एडीटर अजीत अंजुम से मिला। उन्होंने विषय की कुछ प्रस्तावनाओं से सहमति जताई, मीडिया पर अपने दशर्क-पाठकों की रूचि के दबाव, बाजार की भूमिका, बड़ी पूंजी की मजबूरियों और खबर के प्रति वस्तुनिष्ठ नजरिए को एक पर्सपेक्टिव के साथ रखा। उन्होंने यह माना कि मीडिया की सामाजिक जिम्मेदारी बनती है, लेकिन स्पष्ट शब्दों में इस सोच को खारिज कर दिया कि मीडिया कोई एनजीओ या आंदोलन है। उन्होंने बहुत स्पष्ट कहा कि चाहे पुश्ते का विस्थापन हो या सीलिंग, मीडिया कोई पार्टी नहीं है और इन घटनाओं को छापने या दिखाने का फैसला इनके न्यूज वैल्यू से तय होगा, वर्ग या वर्ण के भावनात्मक रूझान से नहीं। उनके कहे का लब्बो-लुआब यह भी रहा कि मीडिया बिजनेस है और खबर प्रोडक्ट है, जिसके केंद्र में इसके पाठक या दर्शक हैं। उनसे हुई बातचीत का ब्योरा यहां प्रस्तुत है-
यमुना पुश्ते से झुग्गियों के उजाड़े जाने और दिल्ली की सीलिंग दोनों की कवरेज में जमीन-आसमान का अंतर रहा। इसकी क्या वजह है?
मेरा मानना है कि चाहे ये दो घटनाएं हों या कोई और घटना हो कवरेज को लेकर तुलनात्मक समीक्षा नहीं होनी चाहिए। मेरा सवाल है कि आखिर कौन इंच, टेप या मीटर लेकर यह नाप रहा है कि किस घटना को कितनी कवरेज मिली और ऐसा क्यों कर रहा है? दो अलग-अलग प्रकृति और पृष्ठभूमि की घटनाओं की कवरेज अलग-अलग होगी ही, इसे समझने के लिए अतिरिक्त बुद्धि की जरूरत नहीं है। यमुना पुश्ते का विस्थापन और दिल्ली की सीलिंग दो अलग-अलग किस्म की समस्याएं हैं। अगर कहीं से झुग्गी बस्ती हटाई जा रही है और हटाए जा रहे लोगों के लिए पुनर्वास की व्यवस्था नहीं हो रही है तो यह एक खबर है। इसी तरह से दिल्ली की सीलिंग भी एक खबर है। इन दोनों घटनाओं को कितना समय दिया जाए, यह इनके न्यूज वैल्यू से तय होगा।
तो क्या दिल्ली की सीलिंग की न्यूज वैल्यू ज्यादा थी?
निश्चित रूप से। दिल्ली में सीलिंग बिल्कुल नई बात थी। झुग्गियों का उजड़ना पिछले 30-40 सालों से चल रहा है, विस्थापन भी दशकों से चल रही प्रक्रिया है। विस्थापितों के प्रति पूरी सहानुभूति के बावजूद यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि विस्थापन ऐसी खबर है, जिसके लिए मौजूदा समय में दर्शक या पाठक खोजना मुश्किल है। इसके लिए हम या मीडिया के दूसरे लोग कितने जिम्मेदार हैं और हमारा समाज कितना जिम्मेदार है, यह अलग बहस का विषय है। इसके बरक्स सीलिंग एक नई घटना थी। ऐसे लोगों के घरों की सीलिंग और तोड़-फोड़ हो रही थी, जिनके लिए अवैध निर्माण अधिकार की बात मानी जाती थी। देखते-देखते उनका अधिकार बेबसी में तब्दील हो गया। कानून का बुलडोजर चलने वाले और समाज में शक्ति व अधिकार का पर्याय बन गए लोग आंसू बहाते हुए सड़कों पर आ गए। यह नया दृश्य था, मीडिया के लिए और समाज के लिए भी। इसकी नोवेल्टी में न्यूज वैल्यू था।
खबरों का प्रदर्शन सिर्फ न्यूज वैल्यू से तय होगा या सामाजिक सरोकार भी कोई चीज है?
सामाजिक जिम्मेदारी से कोई मुंह नहीं मोड़ सकता। लेकिन सिर्फ सामाजिक जिम्मेदारी के निर्वहन से मीडिया का बिजनेस नहीं चल सकता। मीडिया कोई आंदोलन या एनजीओ नहीं है, जो किसी आंतरिक या बाह्य अनुदान से संचालित हो रहा है। इसमें बड़ी पूंजी लगती है। चैनल शुरू करना दो सौ-ढाई सौ करोड़ रुपए का निवेश होता है और अच्छे से अच्छा कंटेंट भी दिखाएं तो हम महीने करोड़ों का नुकसान होता है। इसे गोरखपुर के गीता प्रेस की तरह नो प्राफिट नो लॉस की तर्ज पर नहीं चलाया जा सकता और न स्वांतः सुखाय चलाया जा सकता है। जिस तरह से हर प्रोडक्ट का एक टारगेट होता है, वैसे ही मीडिया का भी एक टारगेट है। उसे ध्यान में रख कर ही खबरें दी जा सकती हैं।
मीडिया का टारगेट क्या है?
मीडिया का टारगेट है, सबके मतलब की खबर देना। इसमें हम ज्यादातर व्यापक समाज के हित की खबरें दिखाते हैं। सरकार पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ाती है तो, इससे धनी लोगों पर जितना असर पड़ता है, उससे ज्यादा प्रभावित आम लोग होते हैं। हम आक्रामक होकर ऐसे मामलों में सरकार को कठघरे में खड़ा करते हैं। इसी तरह से ब्याज दर बढ़ना आम लोगों से जुड़ी खबर है। देश के विभिन्न हिस्सों में भ्रष्टाचार को उजागर करना आम लोगों के सरोकार की खबर है, जो हम दिखाते हैं। एक राष्ट्रीय चैनल या अखबार का टारगेट हमेशा उसका व्यापक पाठक या दर्शक वर्ग ही होगा, जिसकी नब्ज, जिसकी रूचि को समझना सफलता के लिए सबसे जरूरी है। पाठक या दर्शक अंततः उपभोक्ता है, उसे क्या पसंद है और क्या नापसंद इसे समझना जरूरी होता है।
न्यूज वैल्यू तय करने का आधार क्या है?
अगर चैनल के नजरिए से कहें तो- घटना की व्यापकता, उसका विस्तार, उसका संभावित असर और विजुअल इंपैक्ट खबर के चयन का आधार होता है। उदाहरण के लिए एक कॉलोनी में चार मकान गिराए गए और किसी जगह से चार सौ झुग्गियां उजाड़ी गईं, तो निश्चित रूप से झुग्गियों वाली खबर बड़ी खबर बनेगी। सचिन तेंदुलकर ने तीन सौ रन बना कर भारत को एक मैच जिताया और 50 रन बना कर एक मैच जिताया, तो जाहिर है कि तीन सौ रन वाली पारी को ज्यादा तरजीह दी जाएगी और उसका प्रसारण ज्यादा व्यापक पैमाने पर होगा। तो खबर के क्वांटम से जगह तय होगी। इस लिहाज से सीलिंग ज्यादा बड़ी खबर थी। इसका विस्तार पूरी दिल्ली में था। इससे प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा थी। और इसलिए इसे ज्यादा जगह मिली।
सीलिंग से प्रभावितों के प्रति मीडिया में एक किस्म की सहानुभूति दिखी?
मुझे नहीं लगता है कि ऐसा हुआ। लेकिन अगर किसी अखबार या चैनल पर ऐसा दिखा तो यह गलत है। अवैध निर्माण चाहे वह यमुना के पुश्ते पर किसी गरीब द्वारा किया गया हो किसी पॉश कॉलोनी में किसी बड़े आदमी द्वारा। उसे तोड़े जाने की कानूनी कार्रवाई का आकलन वस्तुनिष्ठ आधार पर ही होना चाहिए। व्यापक रूप से ऐसा हुआ भी। चैनलों ने बहुत आक्रामक ढंग से यह दिखाया कि किस तरह से सत्तारूढ़ दल के नेताओं ने अवैध निर्माण किया और घरों में दुकानें चला रहे हैं। ऐसे नेताओं के प्रति किसी तरह की सहानुभूति का भाव रहा, ऐसा मुझे नहीं लगता।
प्र.- यमुना पुश्ते का विस्थापन हो गया, जबकि सीलिंग रूक गई। इसके पीछे कहीं न कहीं मीडिया द्वारा किए गए व्यापक कवरेज की भूमिका भी रही?
मैं नहीं मानता। सीलिंग से प्रभावित लोग शक्तिशाली और संपन्न थे। उन्होंने धरने और प्रदर्शन प्रायोजित करवाए, उनका राजनीतिक असर व्यापक था, जिससे उन्होंने राजनीतिक दलों को प्रभावित किया। पार्टियां खुद इस कार्रवाई से विचलित थीं और इसे रोकना चाहती थीं और उन्होंने रोक दिया।
प्र.- सीलिंग की तस्वीरें और दृश्य बड़ी सहानुभूति के साथ दिखाए गए, जबकि पुश्ते पर की ऐसी कोई तस्वीर सामने नहीं आई?
मैं तथ्यात्मक रूप से इस बारे में कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं। लेकिन सैद्धांतिक बात यह है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में विजुअल इंपैक्ट काफी महत्वपूर्ण होता है। देश के नामी फैशन डिजाइनर सड़क पर खड़े होकर आंसू बहा रहे हैं और झुग्गी की कोई महिला रो रही है तो जाहिर तौर पर पहली घटना का विजुअल इंपैक्ट ज्यादा होगा। हालांकि नैतिक व मानवीय रूप से यह काफी क्रूर बयान है, लेकिन यह हमारे समय और समाज की हकीकत है। गरीब के आंसू देखने वाले लोगों की संख्या लगातार कम हो रही है। इसके लिए कई कारक जिम्मेदार हैं। मैंने भी 20 साल पहले कुलियों के दृश्य चित्र खींचे हैं, कुष्ठ रोगियों की बस्ती पर एक-एक पन्ने की स्टोरी की है, तब लोग इसे देखते थे, पढ़ते थे, आज लोगों की रुचियां बदल गई हैं। और अगर आप करोड़ों रुपए लगा कर चैनल शुरू करते हैं तो लोगों की रुचियों की अनदेखी नहीं कर सकते।
अजीत द्विवेदी

1 comment:

Srijan Shilpi said...

ये अंजुम साहब पत्रकार न होकर कोई अंतर्यामी किस्म के पहुंचे हुए पारखी लगते हैं। इन्हें सब पता है कि जनता क्या देखना चाहती है, उनकी दिलचस्पियां क्या हैं ! ये अपनी नजर, अपनी सोच, अपनी समझ को सारे हिन्दुस्तानियों की समझ पर लाद देते हैं और पत्रकारिता के मिजाज-तेवर तय करने में लगे हुए हैं।

इनके पास लाख रुपये महीने वाली नौकरी है, इसलिए इनकी जुबान से इतनी समझदारी भरी बातें निकल रही हैं। खुदा न करे, यदि कल को मालिक चैनल से निकाल दें और सड़क पर आ जाएं तो इनकी सोच और समझ पल भर में पलटा खा जाएगी और हकीकत इन्हें बदली-बदली नजर आने लगेगी।

मीडिया के चरित्र और मिजाज की अच्छी पड़ताल आप कर रहे हैं। खासकर इस तरह की बातचीत से उन लोगों की मानसिकता का पता भी चल रहा है जो आज के न्यूज चैनलों को चला रहे हैं।