Wednesday, November 28, 2007

मीडिया की नजर

मीडिया की नजर में सीलिंग बनाम पुश्ते का विस्थापन
मीडिया का सर्वव्याप्तिकरण एक किस्म का आश्वासन देता है कि लोकतन्त्र टिका हुआ रहेगा. जब सर्वव्याप्तिकरण की बात चली है तो इस पर भी विचार कर लिया जाए कि इसकी व्याप्ति कहां-कहां तक है. यह नेताओं के बेडरूम तक पहुंचा हुआ है. इसकी पहुंच नेताओं और नौकरशाहों के दफ्तर तक है, जहां रिश्वत का ब्यापार चलता है. यह महानायकों के घरों तक भी पहुंचा हुआ है. इसकी पहुंच साठ फीट गहरे गढे तक भी है. सन्सद से लेकर सडक तक मीडिया ही तो है. यह नेताओं को बेनकाब करता है, भ्रष्टाचार पकडता है. इसके चलते एक दर्जन सान्सदं की कुर्सी गयी. ये और इस तरह की बहुत सारी बातें पिछले दिनो आये हंस पत्रिका के विशेष अंक मे मीडिया के प्रमुख लोगों ने कहे हैं. ऐसा ही कुछ दिखता भी है इसलिए इसे नही मानने की कोई वजह नही है. लेकिन क्या मीडिया के इस सर्वव्याप्तिकरण की दशा और दिशा दोनों पूरी तरह सही हैं? यह विवाद का विषय है. मुझे खुद भी इस पर सन्देह है इसलिए जब दिल्ली मे सीलिन्ग चल रही थी तो इसके मीडिया कवरेज पर मैंने बारीकी से नजर रखी थी. मेरे जेहन मे कुछ ही समय पहले यमुना के पुश्ते पर हुए विस्थापन की तस्वीरें भी थीं. दोनों के मीडिया कवरेज के तुलनात्मक विश्लेषण से कई रोचक तथ्य सामने आए. इनमें से यह एक तथ्य प्रमुखता से उभरा कि भारतीय मीडिया एक किस्म के वर्गभेद का शिकार है. इस वर्गभेद के कई कारण हैं, जिनका विश्लेषण आगे होगा. मीडिया में जाति को लेकर कुछ अध्ययन पहले हुए हैं, उनका भी जिक्र होगा. लेकिन इसकी शुरुआती तस्वीर मैं बताना चाहूंगा. हमारा राष्ट्रीय मीडिया जब सीलिन्ग को कवर कर रहा था तो उसका नजरिया कुछ ऐसा था जैसे राजधानी के आम आदमी पर सरकार जुल्म ढा रही है. लोगों द्वारा किए गए अवैध निर्माण का मसला नेप्थ्य मे चला गया था. अवैध निर्माण मीडिया की नजर मे सेकेन्डरी मसला था. मुख्य मसला लोगों को उनके घरों से हटाने का था. लेकिन जब यही मीडिया यमुना पुश्ते के विस्थापन को कवर करता है तो उसका नजरिया बदल जाता है. उस समय हजारों लोगों को भेड बकरियों कि तरह उनके घरों से निकाल कर किसी ऐसी जगह भेज देना जहां बुनियादी सुविधाओं का भी अता पता न हो, मीडिया के लिए मुख्य मसला नही था. तब मुख्य मसला अवैध निर्माण, यमुना का सौदर्यीकरण और यहां तक कि आईटीओ की सडक का जाम होना था. ये खबर अखबार और चैनलों की सुर्खियों मे थोडे समय के लिए आए लेकिन बिल्कुल राजनीतिक कारण से. तब मीडिया मे यह कयास लगाया जाता रहा कि थोडे समय बाद होने वाले लोकसभा चुनाव पर इसका क्या असर होगा. न तो इसे रोकने का कोई आन्दोलन चला और न कोई अध्यादेश आया. एमसीडी के चुनाव ने सीलिन्ग रुकवा दी, लेकिन लोकसभा का चुनाव पुश्ते का विस्थापन नहीं रोक सका. इसके भी कई राजनीतिक और सामाजिक आयाम हैं, जिन पर आगे विचार किया जाएगा. आज इतना ही. यूनिकोड में लिखने का पहला अनुभव है इसलिए कुछ अशुधियां होंगी. इसके बाद शायद ये अशुधियां न मिलें. आगे अध्ययन के निष्कर्ष और उस पर आधारित अपनी राय लेकर सराय पर नियमित मिलूंगा.
\n\u003cp\>परिचय -हिंदी पत्रकारिता से जुडा हूं और कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ भी सक्रिय हूं. \u003c/p\>\n\u003cp\>धन्यवाद\u003cbr\>अजीत कुमार द्विवेदी\u003c/p\>\n\u003cp\> \u003c/p\>\n",0]
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